Class-12 History
Chapter- 4 (विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास)
सुमेलित प्रश्न
प्रश्न 1.खण्ड 'क' को खण्ड 'ख' से सुमेलित कीजिए।
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खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
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(1) जरथुस्त्र |
भारत |
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(2) सुकरात |
ईरान |
|
(3) खंगत्सी |
यूनान |
|
(4) महावीर |
चीन |
उत्तर:
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खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
|
(1) जरथुस्त्र |
ईरान |
|
(2) सुकरात |
यूनान |
|
(3) खंगत्सी |
चीन |
|
(4) महावीर |
भारत |
प्रश्न 2. खण्ड 'क' को खण्ड 'ख' से सुमेलित कीजिए।
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खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
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(1) अमरावती |
मध्य प्रदेश |
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(2) साँची |
आन्ध्र प्रदेश |
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(3) महाबलीपुरम |
महाराष्ट्र |
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(4) एलोरा |
तमिलनाडु |
उत्तर:
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खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
|
(1) अमरावती |
आन्ध्र प्रदेश |
|
(2) साँची |
मध्य प्रदेश |
|
(3) महाबलीपुरम |
तमिलनाडु |
|
(4) एलोरा |
महाराष्ट्र |
प्रश्न 1.
600 ई. पू. से 600 ई. तक के विचारों एवं विश्वासों की दुनिया के पुनर्निर्माण के लिए इतिहासकार किन-किन स्रोतों का प्रयोग करते हैं ?
उत्तर:
1.
साहित्यिक ग्रन्थ-बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण ग्रन्थ
2.
भौतिक साक्ष्य-इमारतें व अभिलेख।
प्रश्न 2. साँची का स्तूप कहाँ स्थित है ?
उत्तर:
साँची का स्तूप मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 20 मील उत्तर-पूर्व में स्थित साँची कनखेड़ा नामक एक गाँव में स्थित है।
प्रश्न 3. फ्रांसीसी साँची स्तूप के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस ले जाने के लिए क्यों बहुत उत्सुक थे?
उत्तर:
क्योंकि वे उसे फ्रांस के संग्रहालय में प्रदर्शित करना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से मंजूरी माँगी।
प्रश्न 4. साँची के स्तूप को किसने संरक्षण प्रदान किया ?
उत्तर:
साँची के स्तूप को भोपाल के शासकों ने संरक्षण प्रदान किया जिनमें शाहजहाँ बेगम एवं सुल्तानजहाँ बेगम आदि प्रमुख थीं।
प्रश्न 5. यदि आप भोपाल की यात्रा करेंगे तो वहाँ किस बौद्धकालीन स्तूप को देखना चाहेंगे?
उत्तर;
साँची के स्तूप को।
प्रश्न 6. ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का काल विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
क्योंकि इस काल में ईरान में जरथुस्त्र, चीन में खुंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु एवं भारत में महावीर व बुद्ध जैसे चिन्तकों का उदय हुआ।
प्रश्न 7. ऋग्वेद किसका संग्रह है?
उत्तर:
ऋग्वेद अग्नि, इन्द्र, सोम आदि कई देवताओं की स्तुतियों का संग्रह है।
प्रश्न 8. निम्न प्रतिमा की पहचान कीजिए और इसे उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर:
मथुरा से प्राप्त तीर्थंकर (वर्धमान महावीर) की एक मूर्ति जो लगभग तीसरी शताब्दी ई. की है।
प्रश्न 9. 'त्रिपिटक' किस धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ है?
उत्तर-:
त्रिपिटक' बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ है।
अमरावती का स्तूप क्यों नष्ट हो गया
प्रश्न 10. जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा क्या है?
उत्तर;
जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि सम्पूर्ण विश्व प्राणवान है।
प्रश्न 11. जैन दर्शन का केन्द्र-बिन्दु क्या है?
उत्तर:
जैन दर्शन का केन्द्र-बिन्दु जीवों के प्रति अहिंसा है।
प्रश्न 12.सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन परम्परा को किस सिद्धान्त ने प्रभावित किया है?
अथवा
जैन धर्म का वह सिद्धांत लिखें जिसने सम्पूर्ण भारतीय चिंतन परम्परा को प्रभावित किया।
उत्तर:
जैन अहिंसा के सिद्धांत ने सम्पूर्ण भारतीय चिंतन परम्परा को प्रभावित किया है।
प्रश्न 13. जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र किसके द्वारा निर्धारित होता है?
उत्तर:
जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म के द्वारा निर्धारित होता है।
प्रश्न 14. कर्म-चक्र से मुक्ति के लिए क्या किया जाना आवश्यक है ?
उत्तर:
कर्म-चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या किया जाना आवश्यक है।
प्रश्न 15. जैन धर्म के पाँच व्रतों के नाम बताइए।
उत्तर:
1.
हत्या न करना
2.
चोरी न करना
3.
झूठ न बोलना
4.
धन संग्रह न करना
5.
ब्रह्मचर्य।
प्रश्न 16. बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किन-किन देशों में हुआ ?
अथवा
बुद्ध के संदेश भारत के बाहर किन-किन देशों में फैले? नाम लिखिए।
उत्तर:
चीन, कोरिया, जापान, श्रीलंका, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया व म्यांमार में।
प्रश्न 17. बुद्ध के अनुसार निर्वाण का क्या अर्थ है?
उत्तर:
बुद्ध के अनुसार निर्वाण का अर्थ है-अहं व इच्छा का समाप्त हो जाना।
प्रश्न 18. बुद्ध का अपने अनुयायियों के लिए अन्तिम संदेश क्या था?
उत्तर:
बुद्ध का अपने अनुयायियों के लिए अन्तिम संदेश था, “तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें खुद ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूँढ़ना है।"
प्रश्न 19. किसके आग्रह पर महात्मा बुद्ध ने महिलाओं को संघ में आने की अनुमति प्रदान की?
उत्तर:
शव दाह के पश्चात् बौद्धों के शरीर के कुछ अवशेष टीलों में सुरक्षित रख दिये जाते थे। अन्तिम संस्कार से जुड़े इन टीलों को चैत्य कहा जाता था।
प्रश्न 20. बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गोतमी संघ में आने वाली पहली महिला थीं।
उत्तर:
भिक्खुनी।
प्रश्न 21. थेरी से क्या आशय है ?
उत्तर:
थेरी से आशय ऐसी महिला से है जिसने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो।
प्रश्न 22. स्तूप क्या हैं ?
अथवा
स्तूप क्यों प्रतिष्ठित थे?
उत्तर:
स्तूप बौद्ध धर्म से जुड़े पवित्र टीले हैं जिनमें बुद्ध के शरीर के अवशेष अथवा उनके द्वारा प्रयोग की गई वस्तुओं को गाढ़ा गया था।
प्रश्न 23.चैत्य क्या थे ?
उत्तर:
शव दाह के पश्चात् बौद्धों के शरीर के कुछ अवशेष टीलों में सुरक्षित रख दिये जाते थे। अन्तिम संस्कार से जुड़े इन टीलों को चैत्य कहा जाता था।
प्रश्न 24. महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ था।'
प्रश्न 25. महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़े किन्हीं चार स्थानों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1.
लुम्बिनी,
2.
बोधगया,
3.
सारनाथ,
4.
कुशीनगर।
प्रश्न 26. बुद्ध के जीवन से जुड़े बोधगया एवं सारनाथ नामक स्थानों का महत्व बताइए।
उत्तर:
बौद्धगया में बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, जबकि सारनाथ में बुद्ध ने सर्वप्रथम उपदेश दिया था जिसे धर्म चक्र प्रवर्तन कहा जाता है।
प्रश्न 27. महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश कहाँ दिया?
उत्तर;
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया।
प्रश्न 28. स्तूप को संस्कृत में क्या कहा जाता है?
उत्तर:
स्तूप को संस्कृत में टीला कहा जाता है।
प्रश्न 29. बिना अलंकरण वाले प्रारंभिक स्तूप कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
साँची और भरहुत स्तूप बिना अलंकरण वाले प्रारंभिक स्तूप हैं।
प्रश्न 30. अमरावती का स्तूप किस राज्य में स्थित है?
उत्तर:
अमरावती का स्तूप गुंटूर (आंध्र प्रदेश) में स्थित है।
प्रश्न 31. वाल्टर एलियट कौन था?
उत्तर:
वाल्टर एलियट गुंटूर (आंध्र प्रदेश) के कमिश्नर थे जिन्होंने 1854 में अमरावती की यात्रा की तथा यह निष्कर्ष निकाला कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल व शानदार स्तूप था।
प्रश्न 32.जेम्स फर्गुसन ने वृक्ष और सर्प पूजा का केन्द्र किसे माना?
उत्तर:
जेम्स फर्गुसन ने साँची को वृक्ष और सर्प पूजा का केन्द्र माना।
प्रश्न 33. बोधिसत्त की संकल्पना को परिभाषित कीजिए।
अथवा
बोधिसत्त, कौन थे?
उत्तर:
बोधिसत्तों को परम करुणामय जीव माना गया है जो अपने सत्कार्यों से पुण्य कमाते थे। वे इस पुण्य से दूसरों की सहायता थे।
प्रश्न 34. नीचे दी गई मूर्ति को पहचानिए और उसका सही नाम लिखिए :
उत्तर:
प्रथम सदी की बुद्ध मूर्ति, मथुरा।
प्रश्न 35. बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा की कोई एक विशेषता बताइए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा में बुद्ध को एक मनुष्य समझा जाता था।
प्रश्न 36.बौद्ध धर्म की महायान शाखा की कोई एक विशेषता बताइए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म की महायान शाखा में बुद्ध व बोधिसत्तों की पूजा की जाती थी।
प्रश्न 37. हिन्दू धर्म की एक परम्परा वैष्णव है तो दूसरी कौन-सी है ?
उत्तर:
शैव।
प्रश्न 38. वैष्णववाद और शैववाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर;
वैष्णववाद में विष्णु को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना जाता है, जबकि शैववाद में शिव परमेश्वर है।
प्रश्न 39. कैलाशनाथ मन्दिर कहाँ स्थित है ?
उत्तर:
कैलाशनाथ मन्दिर एलोरा (महाराष्ट्र) में स्थित है।
प्रश्न 40. कौन-सा अनूठा ग्रन्थ सुत्त पिटक का हिस्सा है?
उत्तर:
ग्रन्थ सुत्त पिटक का हिस्सा है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (SA1)
प्रश्न 1. राजाओं और सरदारों द्वारा कौन-कौन से जटिल यज्ञ कराये जाते थे ?
उत्तर:
वैदिक काल में यज्ञों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। राजसूय एवं अश्वमेध जैसे जटिल यज्ञ राजाओं और सरदारों द्वारा कराये जाते थे जिनका अनुष्ठान ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा करवाया जाता था।
प्रश्न 2: उपनिषद् क्या थे ? इनसे हमें क्या पता चलता है ?
उत्तर:
उपनिषद् जीवन, मृत्यु एवं परब्रह्म से सम्बन्धित गहन विचारों वाले ग्रन्थ थे। इनसे हमें पता चलता है कि लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के पश्चात् जीवन की सम्भावना एवं पुनर्जन्म के बारे में जानने को उत्सुक थे। वे यह भी पता लगाना चाहते थे कि अतीत के कर्मों का पुनर्जन्म के साथ क्या सम्बन्ध है।
प्रश्न 3, त्रिपिटक कौन-कौन से हैं ?
अथवा
पिटक कितने हैं? इनकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
त्रिपिटक (पिटक) तीन हैं
1.
विनय पिटक-इसमें संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले
बौद्ध भिक्षुओं व भिक्षुणियों के आचरण सम्बन्धी नियमों का संग्रह है।
2.
सुत्तपिटक-इसमें महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संग्रह है।
3.
अभिधम्म पिटक-इसमें बौद्ध दर्शन से जुड़े विषयों का
संग्रह है। .
प्रश्न 4.जैन धर्म पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म के मूल सिद्धान्त ई. पू. छठी सदी में वर्धमान महावीर के जन्म से पूर्व ही उत्तर भारत में प्रचलित थे। महावीर से पहले जैन धर्म में 23 शिक्षक हो चुके थे जिन्हें तीर्थंकर कहते थे। जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा के अनुसार समस्त संसार प्राणवान है, यहाँ तक कि पत्थर, चट्टान तथा जल में भी जीवन है। जीवों के प्रति अहिंसा जैन दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त ने समस्त भारतीय चिंतन को प्रभावित किया है। जैन मान्यता के अनुसार जन्म तथा पुनर्जन्म के चक्र का निर्धारण कर्म के द्वारा होता है। त्याग व तपस्या के द्वारा कर्म के चक्र से मुक्ति पायी जा सकती है जो कि संसार के त्याग से ही संभव हो सकता है। जैन साधु तथा साध्वी पाँच व्रतों का पालन करते थे-चोरी न करना, झूठ न बोलना, हत्या न करना, धन संग्रह न - करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना।
प्रश्न 5. सिद्धार्थ ने संन्यास का मार्ग अपनाने का फैसला क्यों किया?
अथवा
सिद्धार्थ ने संन्यास का रास्ता अपनाने का निश्चय क्यों किया? कारण लिखें।
उत्तर:
वृद्ध, बीमार एवं मृतक व्यक्ति को देखकर सिद्धार्थ (बुद्ध) जान गये थे कि समस्त विश्व दुखों का घर है। इसके पश्चात् उन्होंने एक संन्यासी को देखा जो चिन्ताओं से मुक्त व शान्त था। इसलिए सिद्धार्थ ने संन्यास का मार्ग अपनाने का फैसला किया।
प्रश्न 6. बुद्ध की शिक्षाओं को बताइए।
उत्तर:
बुद्ध की शिक्षाएँ:
1.
विश्व अनित्य है और निरन्तर बदल रहा है,
2.
यह विश्व दुखों का घर है;
3.
मध्यम मार्ग अपनाकर ही मनुष्य दुखों से छुटकारा
प्राप्त कर सकता है,
4.
दयावान एवं आचारवान बनने पर बल देना।
प्रश्न 7. क्या आप बता सकते हैं कि भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए नियम क्यों बनाए गए?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों के लिए संघ की स्थापना की। संघ ऐसे भिक्षुओं की संस्था थी जो धम्म के शिक्षक बन गये थे। बाद में भिक्षुणियों को भी सम्मिलित होने की अनुमति दे दी गयी। इस कारण धीरे-धीरे संघ में भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। फलस्वरूप संघ में अनुशासन व व्यवस्था बनाए रखने के लिए भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए नियम बनाए गए।
प्रश्न 8. बौद्ध संघ में भिक्षुओं की दैनिक जीवनचर्या को बताइए।
उत्तर:
बौद्ध संघ में भिक्षुओं की दैनिक जीवनचर्या-
1.
भिक्षु सादा जीवन व्यतीत करते थे।
2.
उनके पास जीवनयापन के लिए अत्यावश्यक वस्तुओं के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता था।
3.
वे उपासकों से भोजन प्राप्त करने के लिए एक कटोरा
रखते थे।
प्रश्न 9. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे? कारण दीजिए।
उत्तर;
मेरे मतानुसार स्त्री-पुरुष निम्न कारणों से संघ में जाते थे
1.
वे सांसारिक मोह-माया से दूर रहना चाहते थे।
2.
संघ का जीवन सादा व अनुशासित था।
3.
कुछ लोग धम्म के शिक्षक बनना चाहते थे।
4.
वहाँ वे बौद्ध दर्शन का गहनता से अध्ययन कर सकते थे।
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प्रश्न 10. बौद्ध संघ की संचालन पद्धति को बताइए।
उत्तर:
बौद्ध संघ की संचालन पद्धति गणों एवं संघों की परम्परा पर आधारित थी जिसके तहत लोस किसी निर्णय पर बातचीत के माध्यम से एकमत होने का प्रयास करते थे। यदि ऐसा होना सम्भव नहीं हो पाता था तो मतदान द्वारा निर्णय किया जाता था।
प्रश्न 11. थेरीगाथा के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
थेरी गाथा बौद्ध ग्रन्थ सुत्त पिटक का एक भाग है जिसके अन्तर्गत भिक्षुणियों द्वारा रचित छन्दों का संकलन किया गया है। इससे उस समय की महिलाओं के सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त होती है। .
प्रश्न 12. बौद्ध धर्म का तीव्रता के साथ विस्तार क्यों हुआ ?
अथवा
आपकी दृष्टि में बौद्ध धर्म के तेजी से प्रसार के क्या कारण थे ? किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1.
जनता समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असन्तुष्ट थी।
2.
बौद्ध शिक्षाओं में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की
अपेक्षा अच्छे आचरण एवं मूल्यों को महत्व प्रदान किया गया ।
3.
बौद्ध धर्म में स्वयं से छोटे और कमजोर लोगों की ओर
मित्रता व करुणा के भाव को महत्व दिया गया।
प्रश्न 13. बुद्ध के जीवन से जुड़े चार स्थानों के नाम बताइए।
उत्तर:
बुद्ध के जीवन से जुड़े चार स्थान निम्नलिखित हैं
1.
लुम्बिनी-बुद्ध का जन्म स्थान।
2.
बोधगया-जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ।
3.
सारनाथ-जहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश दिया।
4.
कुशीनगर-जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
प्रश्न 14. स्तूप किसे कहते हैं ? किन्हीं तीन स्थानों के नाम बताइए जहाँ स्तूप बनाए गए थे।
उत्तर:
स्तूप बौद्ध धर्म से जुड़े पवित्र टीले हैं जिनमें बुद्ध के शरीर के कुछ अवशेष अथवा उनके द्वारा प्रयोग की गई किसी वस्तु को गाढ़ा गया था।
स्तूप निर्माण के तीन स्थान-
1.
साँची,
2.
भरहुत,
3.
सारनाथ।
प्रश्न 15. साँची और भरहुत के स्तूपों के बारे में बताइए।
उत्तर:
साँची और भरहुत के स्तूप बिना अलंकरण के हैं, उनमें केवल पत्थर की वेदिकाएँ एवं तोरणद्वार हैं। ये पत्थर की वेदिकाएँ किसी बाँस के या काठ के घेरे के समान थी एवं चारों दिशाओं में खड़ तोरणद्वारों पर बहुत नक्काशी की गई थी।
प्रश्न 16. पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल प्राचीन कलाकृतियों के बारे में क्या सोच रखते थे ?
उत्तर:
पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल प्राचीन कलाकृतियों को उठा ले जाने के विरुद्ध थे। वे इस लूट को आत्मघाती मानते थे। उनका मानना था कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर कलाकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज के स्थान पर ही रखी जानी चाहिए।
प्रश्न 17. साँची के स्तूप की खोज कब हुई?
उत्तर:
इसकी खोज 1818 ई. में हुई थी। इसके चार तोरणद्वार थे जिनमें से तीन तोरणद्वार ठीक हालत में खड़े थे, जबकि चौथा तोरणद्वार वहीं पर गिरा हुआ था।
प्रश्न 18. महायान मत की बोधिसत्त की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
महायान मत में बोधिसत्त को एक परम करुणामय जीव माना गया है जो अपने सत्कार्यों स मझाते हैं परन्तु वे इस पुण्य का प्रयोग संसार को दुखों में छोड़ने के लिए तथा निर्वाण प्राप्ति के लिए नहीं करते थे बल्कि दूसरों की सहायता करते थे।
प्रश्न 19. हीनयान क्या है ?
अथवा
थेरवाद के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हीनयान (थेरवाद)-बौद्ध धर्म की वह प्राचीन शाखा जिसके अनुयायी न तो देवी में करते थे और न ही बुद्ध को देवता मानते थे। वे बुद्ध को मनुष्य मानते थे, जिन्होंने व्यक्तिगत प्रयास से प्रबोधन व किया था।
प्रश्न 20. यूरोपीय विद्वानों ने बुद्ध एवं बोधिसत्त ही मूर्तियों को भारतीय मूर्तिकला का सर्वरना क्यों माना है?
उत्तर:
बुद्ध एवं बोधिसत्त की मूर्तियाँ यूनानी मूर्तियों स बहुत अधिक मिलती-जुलती थीं। यूरोपीय विद्वान यूनानी परम्परा से परिचित थे; इसलिए उन्होंने इन मूर्तियों को भारतीय कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना।
लघु उत्तरीय प्रश्न (SA2)
प्रश्न 1. प्राचीन युग में प्रचलित यज्ञों की परम्परा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
प्राचीन युग से ही चिन्तन, धार्मिक विश्वास एवं व्यवहार की अनेक धाराएँ चली आ रही थीं। पूर्व वैदिक परम्परा वैसी ही एक प्राचीन परम्परा थी जिसकी जानकारी हमें ऋग्वेद से प्राप्त होती है। ऋग्वेद का संकलन 1500 से 1000 ई. पूर्व में किया गया था। ऋग्वेद अग्नि, इन्द्र, सोम आदि कई देवताओं की स्तुति सूक्तों का संग्रह है जिनका यज्ञों के समय उच्चारण किया जाता था तथा लोग पशु, पुत्र, स्वास्थ्य एवं लम्बी आयु के लिए देवताओं से प्रार्थना करते थे। प्रारम्भ में यज्ञ सामूहिक रूप से सम्पन्न किये जाते थे लेकिन लगभग 1000 ई. पू. से 500 ई पू. के मध्य कुछ यज्ञ गृह स्वामियों द्वारा भी किए जाने लगे। राजसूय व अश्वमेध जैसे जटिल यज्ञ सरदार एवं राजाओं द्वारा किए जाते थे जिनके अनुष्ठान के लिए उन्हें ब्राह्मण पुरोहितों पर निर्भर रहना पड़ता था। इस प्रकार प्राचीन युग में यज्ञ परम्परा का संचालन हो रहा था।
प्रश्न 2. बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
बुद्ध की मुख्य शिक्षाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाओं का वर्णन निम्न प्रकार है
बुद्ध की शिक्षाएँ-बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्त पिटक में दी गई कहानियों के आधार पर पुनर्निर्मित किया गया है। बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार अनित्य है तथा लगातार बदल रहा है, यह आत्माविहीन (आत्मा) है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है। इस क्षणभंगुर संसार में दुःख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्व है। घोर तपस्या तथा विषयासक्ति के मध्य मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य संसार के दुखों से मुक्ति पा सकता है।
बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था। बुद्ध का मानना था कि समाज मनुष्य निर्मित है न कि ईश्वर द्वारा, इसीलिए उन्होंने राजाओं तथा गृहपतियों को दयावान एवं आचारवान होने की सलाह दी। मान्यता थी कि निजी प्रयास से सामाजिक परिवेश को बदला जा सकता था। बुद्ध ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्म-ज्ञान एवं निर्वाण के लिए व्यक्ति-केन्द्रित हस्तक्षेप तथा सम्यक कर्म की कल्पना की। निर्वाण का अर्थ था-अहं एवं इच्छा का खत्म हो जाना जिससे गृहत्याग करने वालों के दु:ख के चक्र का अंत हो सकता था। बौद्ध परंपरानुसार अपने शिष्यों के लिए बुद्ध का अंतिम निर्देश था, “तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें खुद ही अपनी मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ना है।"
प्रश्न 3. बौद्ध संघों की स्थापना क्यों की गयी ?
उत्तर:
बौद्ध धर्म की व्यापक लोकप्रियता के कारण शिष्यों की संख्या तीव्रता से बढ़ने लगी जिनमें कुछ ऐसे शिष्य थे जिनका आत्मिक विकास उच्च था; वे धम्म के शिक्षक बन गये। संघ की स्थापना धम्म के शिक्षकों के लिए की गयी थी। संघ में सदाचार और नैतिकता पर बल दिया जाता था। अपरिग्रह मुख्य था, केवल जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुओं के अतिरिक्त वे कुछ नहीं रखते थे। एक कंबल एक पटका एक कटोरा; केवल नाममात्र की यही वस्तुएँ वे रख सकते थे। दिन में एक बार प्राप्त भिक्षा से वे गुजारा करते थे। इसीलिए उन्हें भिक्खु कहा जाता था।
प्रारंभ में महिलाओं का संघ में प्रवेश वर्जित था। बाद में महात्मा बुद्ध ने महिलाओं को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी। महिलाओं को भिक्खुनी या उपासिका कहा जाता था। महाप्रजापति गौतमी जो कि महात्मा बुद्ध की उपमाता थीं, संघ में प्रवेश करने वाली पहली महिला थीं। जो उपासिकायें निर्वाण की स्थिति प्राप्त कर लेती थीं; वे थे।' कहलाता था। सघ का संचालन लाकतान्त्रिक पद्धा से तथा निर्णय बहुमत से लिया जाता था। राजा से लेकर दास तक सभी का दर्जा समान था क्योंकि भिक्खु बनने के बाद पुरानी पहचान से मुक्त होना पड़ता था!
प्रश्न 4. जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में क्या समानताएँ हैं. ? बिन्दुवार निखिए।
उत्तर:
एक समय था जब जैन तथा बौद्ध मत एक ही समझे जाते थे। वस्तुतः तथा बौद्ध धर्म का उद्भव ही एक समान उद्देश्य अर्थात् तत्कालीन कट्टर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में हुआ था, त: उनमें समानता होना स्वाभाविक है, दोनों ही धर्मों में ऐसी कुछ समानताएँ निम्नलिखित हैं.
1.
दोनों ही धर्म जन्म के आधार पर जाति का विरोध करते
हैं।
2.
दोनों धर्मों के प्रवर्तक क्षत्रिय थे।
3.
दोनों ही धर्मों को तत्कालीन राज्यों का आश्रय तथा
सहायता प्राप्त हुई।
4.
दोनों ही वेदों की प्रामाणिकता को नकारते हैं।
5.
दोनों ही धर्मों का सर्वप्रमुख लक्ष्य निर्वाण की
प्राप्ति है।
6.
जैन तथा बौद्ध दोनों ही धर्म मानवतावादी हैं।
7.
दोनों धर्म कर्मवाद तथा पुनर्जन्मवाद में विश्वास
रखते हैं।
8.
दोनों ही धर्मों के मूल में अहिंसा मूल तत्व है।
9.
ये दोनों ही धर्म संसार त्याग पर बल देते हैं।
10. दोनों ही धर्म कर्मकाण्ड का
खण्डन करते हैं।
11. दोनों ही धर्म प्रारंभ में
बुद्धिवादी थे जिनमें भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था, किन्तु कालान्तर में
भक्तिवाद का उदय हुआ।
प्रश्न 5. जैन तथा बौद्ध धर्म में क्या भिन्नताएँ हैं ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जहाँ एक ओर जैन तथा बौद्ध धर्म में अनेक समानताएँ थीं वहीं कुछ असमानताएँ भी थीं। प्रमुख भिन्नताओं का विवरण निम्नलिखित है
1.
जैन धर्म जहाँ आत्मवादी है, वहीं बौद्ध धर्म अनात्मवादी
है।
2.
जैनों के साहित्य को आगम कहा जाता है तो बौद्धों के
साहित्य को त्रिपिटक कहा जाता है।
3.
जैन धर्म अत्यधिक अहिंसावादी है तो बौद्ध धर्म
मध्यमार्गी है।
4.
जैन धर्म के अनुसार मोक्ष मृत्यु के उपरान्त ही सम्भव
है, वहीं बौद्ध धर्म के अनुसार
इसी जन्म में निर्वाण सम्भव है।
5.
जैन अपने तीर्थंकरों की उपासना करते हैं तथा बौद्ध
बुद्ध एवं बोधिसत्तों की।
6.
बौद्ध धर्म ने जातिवाद को मान्यता नहीं दी। जैन धर्म
ने भी उसका विरोध किया लेकिन कालान्तर में वह उसे व्यवहार में न ला सका।
प्रश्न 6. बौद्ध मूर्तिकला की प्रतीकात्मक पद्धति क्या थी? इन प्रतीकों को समझ पाना एक दुष्कर कार्य क्यों था?
उत्तर:
बौद्ध मूर्तिकला की मूर्तियों को स्पष्ट रूप से समझ पाना एक दुष्कर कार्य इसलिए था क्योंकि इतिहासकार केवल इस बात का अनुमान ही लगा सकता था कि मूर्ति बनाते समय मूर्तिकार का दृष्टिकोण क्या था। इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार आरंभिक मूर्तिकारों ने महात्मा बुद्ध को मनुष्य के रूप में न दिखाकर उन्हें केवल प्रतीकों के माध्यम से प्रकट करने का प्रयास किया है। चित्र में दिखाये गये रिक्त स्थान को इतिहासकार बुद्ध की ध्यान अवस्था के रूप में बताते हैं क्योंकि ध्यान की महादशा में अन्तर में रिक्तता की अनुभूति होती है।
स्तूप को महापरिनिर्वाण की दशा के रूप में व्याख्यायित किया गया है; महापरिनिर्वाण का अर्थ है-विराट में समा जाना। चक्र को बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिये गये पहले प्रवचन का प्रतीक माना गया है जिसके अनुसार यहीं से बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का चक्र घूमा। पेड़ का अर्थ मात्र पेड़ के रूप में नहीं बल्कि वह बीज की पूर्ण परिपक्वता का प्रतीक है; एक बीज जिसकी सम्भावना वृक्ष बनने की है वह अपनी पूर्णता को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार बुद्ध अपने जीवन में सम्पूर्णता को प्राप्त हुए।
प्रश्न 7. साँची के प्रतीक लोक परम्पराओं से जुड़े थे। संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
साँची की मूर्तियों में प्राप्त उत्कीर्णन में लोकपरम्परा से जुड़े बहुत से प्रतीकों का चित्रांकन है। मूर्तियों को आकर्षक और सुन्दर दर्शाने हेतु विविध प्रतीकों; जैसे- हाथी, घोड़ा, बन्दर, गाय, बैल आदि जानवरों का उत्कीर्णन जीवन्त रूप से किया गया है। हाथी को शक्ति तथा ज्ञान का प्रतीक कहा गया है। इसी प्रकार एक स्त्री तोरणद्वार के किनारे एक पेड़ पकड़कर झूल रही है। यह शालभंजिका की मूर्ति है, लोक परम्परा में शालभंजिका को शुभ का प्रतीक माना जाता है। वाम दल और हाथियों के बीच एक महिला को एक अन्य मूर्ति में दिखाया गया है।
हाथी उस महिला के ऊपर जल छिड़क रहे हैं; जैसे- उसका अभिषेक कर रहे थे। इस महिला को बुद्ध की माँ माया देवी माना जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह महिला सौभाग्य की देवी गजलक्ष्मी है। इतिहासकारों का इस सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण है। सर्पो का उत्कीर्णन भी कई स्तम्भों पर पाया जाता है। इस प्रतीक को भी लोक परम्परा से जुड़ा हुआ माना जाता है। प्रारंभिक इतिहासकार जेम्स फर्गुसन के अनुसार साँची में वृक्षों और सर्यों की पूजा की जाती थी। वे बौद्ध साहित्य से अनभिज्ञ थे, उन्होंने उत्कीर्णित मूर्तियों का अध्ययन करके अपना यह निष्कर्ष निकाला था।
प्रश्न 8. अतीत से प्राप्त चित्रों (अजन्ता की कलाकृतियों) की क्या विशेषताएँ थीं?
उत्तर:
अजन्ता (महाराष्ट्र) की गुफाओं में बने भित्ति-चित्र सम्पूर्ण विश्व के आकर्षण का केन्द्र हैं। चित्रकारी भी मूर्तिकला की भाँति संप्रेषण का एक माध्यम है। अजन्ता के चित्रों में कलाकारों ने अपनी भावनाओं को बहुत ही सुन्दर ढंग से गुफाओं की दीवारों पर भित्ति-चित्रों के रूप में उकेरा है जो अब भी अच्छी दशा में हैं। कन है। ये चित्र बहुत ही सुन्दर और सजीव हैं। हर्षोल्लास, उमंग, प्रसन्नता, प्रेम की भावनाओं की अभिव्यक्ति इतनी कुशलता से और जीवन्तता से की गई है कि लगता है कि चित्र बोलने ही वाले हैं। कलाकारों ने इन्हें त्रिविम रूप से चित्रित किया है इसके लिए आभा भेद तकनीक का प्रयोग करके इन्हें सजीवता प्रदान की गई है।
प्रश्न 9. पौराणिक हिन्दू धर्म के उदय पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सभी धर्मों का सार आवागमन के चक्र से छुटकारा पाना तथा जन्म-मरण से मुक्ति है। इसलिए बौद्ध धर्म की तरह मुक्तिदाता की कल्पना तथा इसी तरह के विश्वास उन परम्पराओं में भी पनप रहे थे जिन्हें आज हम हिन्दू धर्म के नाम से जानते हैं। वैष्णव एवं शैव परम्पराएँ, हिन्दू धर्म की दो मुख्य धारायें हैं। वैष्णव वह हिन्दू परम्परा है जिसके आराध्य भगवान विष्णु' हैं और शैव परम्परा के आराध्य देव भगवान 'शिव' हैं। इन आराध्य देवों की पूजा-अर्चना को भक्ति कहा जाता है। भक्ति मार्ग के अनुयायी ईश्वर के प्रति सच्ची लगन और व्यक्ति पूजा पर बल देते थे। ईश्वर और भक्त के बीच प्रेम और समर्पण का सम्बन्ध होता है। भक्त अपने आराध्य देव की पूजा-उपासना को विशेष महत्व देता था।
प्रश्न 10. प्रारंभिक काल में निर्मित मन्दिरों की संरचना तथा इनके विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रारंभिक काल में निर्मित मन्दिरों की संरचना अत्यन्त साधारण होती थी। स्थानीय मन्दिरों का निर्माण उसी कालखण्ड में हुआ जिस समय साँची जैसे स्तूपों का निर्माण हुआ था। इनकी संरचना तथा विकास का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
1.
प्रारम्भ में मन्दिर लगभग एक आयताकार रूप से बने कमरे
के समान होते थे; इसमें अन्दर प्रवेश हेतु एक द्वार होता था जिससे होकर लोग पूजा-उपासना आदि
के लिए अन्दर जा सकें। कमरे के अन्दर के स्थान को गर्भगृह कहा जाता था।
2.
शनैः-शनै: कमरे के ऊपर एक गोल गुम्बदनुमा संरचना
अस्तित्व में आने लगी जिसे शिखर कहा जाता था।
3.
स्थापत्य कला के विकास के साथ-साथ मन्दिर को आकर्षक
रूप प्रदान करने के लिए मन्दिर की दीवारों पर सुन्दर भित्ति चित्रों का चित्रांकन
किया जाने लगा। मन्दिर की बाह्य परिधि पर तथा स्तम्भों पर भी उत्कीर्णन किया गया।
4.
समय व्यतीत होने के साथ-साथ स्थापत्य कला और भी
विकसित हुई । मन्दिरों में विशाल सभाभवन, ऊँची सुरक्षात्मक दीवारें और
तोरणद्वारों का निर्माण किया जाने लगा। मन्दिरों में आचमन हेतु जलकुण्डों का भी
निर्माण होने लगा, इनके लिए जलापूर्ति की भी व्यवस्था की गई।
5.
सबसे विलक्षण एवं मन्दिर निर्माण कला का सर्वश्रेष्ठ
उदाहरण एलोरा महाराष्ट्र का कैलाशनाथ मन्दिर है। इस विशाल मन्दिर का निर्माण एक
पूरी पहाड़ी को काट-तराश कर किया गया है। इसे देखकर कोई भी स्तब्ध
रह जाता है, इसके निर्माण के उपरान्त
इसके प्रमुख शिल्पकार ने इसे देखकर कहा, "हे भगवान यह मुझसे कैसे बना, इसे मैंने कैसे बनाया।"
प्रश्न 11. प्राचीन भारतीय कला की पृष्ठभूमि और महत्व को 19वीं सदी के यूरोपीय विद्वान प्रारंभ में क्यों नहीं समझ सके ? उनकी समस्या का निराकरण किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
प्रत्येक देश की धार्मिक आस्थाओं, धारणाओं, परम्पराओं आदि में विभिन्नता होती है। उनके सोचने और समझने के ढंग और प्रतिमान अलग-अलग होते हैं। इसलिए यूरोपीय विद्वानों ने जब प्राचीन भारतीय मूर्तियाँ; जो कई हाथों, कई सिरों या अर्द्ध मानव के रूप में निर्मित थीं देखीं तो यह उन्हें बहुत ही विचित्र प्रतीत हुईं। आराध्य देवों के ये रूप उनकी कल्पना से परे थे फिर भी इन आरंभिक यूरोपीय विद्वानों ने इन विभिन्न रूपों वाली आराध्य देवों की मूर्तियों को समझने हेतु प्रयास किए। यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन यूनानी कला परम्परा की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर, इन मूर्तियों की तुलना यूनानी मूर्तियों से की।
वे अपनी यूनानी कला परम्परा को भारतीय कला परम्परा से श्रेष्ठ समझते थे, लेकिन जब उन्होंने बौद्ध धर्म की कला परम्परा, बुद्ध और बोधिसत्त की मूर्तियाँ देखीं तो वे बहुत प्रोत्साहित हुए। इन मूर्तियों की उत्कृष्टता को देखकर वे हैरान रह गये, उन्हें लगा कि ये मूर्तियाँ यूनानी प्रतिमानों के अनुरूप हैं। ये मूर्तियाँ तक्षशिला और पेशावर जैसे उत्तर-पश्चिमी नगरों से प्राप्त हुई थीं। इन मूर्तियों को उन्होंने भारतीय मूर्ति कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना। इस प्रकार इस मूर्ति कला की अनजानी व अपरिचित पृष्ठभूमि और इसके अपरिचित महत्व को उन्होंने परिचित यूनानी मूर्तिकला के आधार पर समझने का प्रयास किया। दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का काल विश्व इतिहास में निर्णायक मोड़ क्यों माना जाता है ? भारत में जैन तथा बौद्ध धर्म के विकास के कारणों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
"ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का काल विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है।" न्यायसंगत ठहराइए।
उत्तर:
ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का काल विश्व इतिहास में एक निर्णायक मोड़ इसलिए माना जाता है कि यह काल एक क्रान्तिकारी परिवर्तन का काल था। दार्शनिक सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे थे। जरथुस्त्र (ईरान), खुंगत्सी (चीन), सुकरात, प्लेटो, अरस्तू (यूनान) तथा वर्धमान महावीर, भगवान बुद्ध (भारत) आदि दार्शनिकों का उद्भव इसी काल में हुआ। तथा बौद्ध धर्मों का उद्भव ऐसे ही समय पर हुआ; इस काल में ब्राह्मणवाद ,अपने चरम पर था। पुरातन वैदिक धर्म की सरलता समाप्त हो चुकी थी। वर्धमान महावीर और महात्मा बुद्ध ने समाज को एक नया आलोक, एक नया प्रकाश तथा एक नया मार्ग दिया। ब्राह्मणवाद के निम्न कारणों ने बौद्ध तथा जैन धर्म के विकास को गतिशीलता प्रदान की
(1) वैदिक धर्म में आडम्बरों और कर्मकाण्डों का समावेश-
प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में पुरातन वैदिक धर्म में जटिलता का समावेश नहीं था, धीरे-धीरे उसमें कुरीतियों, आडम्बरों और पाखण्डों का समावेश होने लगा जिनके कारण समाज के लोगों की आस्था इस धर्म के प्रति कमजोर होने लगी तथा लोगों के लिए इन कर्मकाण्डों को अपनाना मुश्किल हो गया। वे किसी सरल, पाखण्ड और आडम्बररहित तथा कर्मकाण्डहीन धर्म की इच्छा करने लगे।
(2) वैदिक ग्रन्थों की कठिन भाषा-
समस्त वैदिक ग्रन्थ जैसे कि वेद, पुराण, उपनिषद् आदि की रचना संस्कृत भाषा में की गयी थी जो आमजन की भाषा न होकर एक वर्ग विशिष्ट की भाषा थी, इसलिए इन ग्रन्थों की पहुँच साधारण वर्ग तक नहीं थी। साधारण वर्ग इन ग्रन्थों को पढ़ने और समझने में असमर्थ था, इसलिए बौद्ध तथा जैन धर्मों की सरल भाषा की ओर वे आकर्षित हुए।
(3) यज्ञों की जटिलता-
ऋग्वैदिक काल में यज्ञ कार्य करना अत्यन्त सरल था, जटिलता नहीं थी। धीरे-धीरे यज्ञ करना साधारण वर्ग की क्षमता से बाहर हो गया। राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ तो केवल राजाओं और सरदारों के सामर्थ्य में ही रह गये। जन साधारण की आस्था इनमें कम होने लगी और वे किसी सरल धर्म की चाह रखने लगे।
(4) शिक्षा तथा ज्ञान का प्रसार-
साधारण वर्ग में शिक्षा तथा ज्ञान के बढ़ते प्रसार ने लोगों के मानसिक दृष्टिकोण में परिवर्तन किया। लोग हर बात का विश्लेषण तार्किक आधार पर करने लगे। बढ़ती जागरूकता के फलस्वरूप कर्मकाण्डों, आडम्बरों और पाखण्डों से लोग दूर होने लगे। वैदिक ब्राह्मणों की चालाकियाँ उनकी समझ में आने लगीं। ऐसे में सरल तथा प्रगतिशील बौद्ध एवं जैन धर्मों ने उन्हें अपने आकर्षण में बाँध लिया।
(5) वैचारिक स्वतन्त्रता एवं महापुरुषों का उद्भव-
लोगों की वैचारिक स्वतन्त्रता का विकास हुआ। लोग आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं पर स्वतन्त्रतापूर्वक विचारविमर्श करने लगे। बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के शिक्षक, श्रमण एवं भिक्षु जगह-जगह भ्रमण करके लोगों में अपने दर्शन एवं अपनी देशनाओं का प्रचार-प्रसार करने लगे। वर्धमान महावीर और महात्मा बुद्ध के उपदेशों ने लोगों को तीव्रता से इन धर्मों की ओर आकृष्ट किया। वैदिक धर्म के उपर्युक्त कारणों ने इन नवीन धर्मों के प्रचार-प्रसार में व्यापक सहयोग किया।
प्रश्न 2. बौद्ध धर्म का लेखन और इनकी सुरक्षा कैसे की जाती थी ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध तथा उनके अनुयायी (बोधिसत्त) लोगों में वार्तालाप व वाद-विवाद द्वारा मौखिक रूप से अपनी शिक्षाओं का प्रसार करते थे। महात्मा बुद्ध के जीवन-काल में वक्तव्यों का लेखन नहीं किया गया था। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के उपरान्त पाँचवीं-चौथी सदी ईसा पूर्व में उनके शिष्यों ने वैशाली में एक सभा का आयोजन किया जिसमें वरिष्ठ श्रमणों द्वारा महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के संकलन का कार्य प्रारम्भ किया गया। शिक्षाओं का संकलन पुस्तकों के रूप में किया गया; जिन्हें त्रिपिटक, (विभिन्न प्रकार के ग्रन्थों को रखने की तीन टोकरियाँ) कहा गया। बुद्ध के वक्तव्यों को उनकी लम्बाई तथा विषय के अनुसार संकलित किया गया। तदुपरान्त बौद्ध धर्म के विद्वानों द्वारा इन पर टिप्पणियाँ लिखी गयीं।
त्रिपिटक—त्रिपिटक में तीन पिटक सम्मिलित हैं
(i) विनय पिटक-विनय पिटक में बौद्ध मठों या संघों में रहने वाले लोगों के लिए आचार संहिता थी। उन्हें किस प्रकार का आचरण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में विनय पिटक में व्यापक नियम दिये गये हैं।
(ii) सुत्त पिटक- सुत्त पिटक में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ दी गयी हैं; जो उन्होंने समाज के प्रत्येक पक्ष को ध्यान में रखते हुए दी हैं।
(iii) अभिधम्म पिटक-अभिधम्म पिटक में दर्शन- शास्त्र से सम्बन्धित विषयों की गहन व्याख्याएँ सम्मिलित हैं।
नये ग्रन्थ-धीरे धीरे बौद्ध धर्म का विस्तार श्रीलंका तक फैल गया तो नये ग्रन्थों जैसे दीपवंश
(द्वीप का इतिहास )और महावंश (महान इतिहास) नामक ग्रन्थों की रचना हुई जिनमें क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित बौद्ध साहित्य प्राप्त होता है। कई रचनाओं में महात्मा बुद्ध की जीवनी का भी समावेश है। अधिकांश पुराने ग्रन्थों का लेखन पालि भाषा में किया गया। बाद में संस्कृत में भी बौद्ध ग्रन्थों का लेखन कार्य किया गया।
ग्रन्थों की सुरक्षा (संरक्षण)-बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार जब पूर्वी एशिया तक हो गया तो इससे आकर्षित होकर फाह्यान और ह्वेनसांग नामक दो तीर्थ यात्री बौद्ध धर्म ग्रन्थों की खोज में चीन से भारत आये। वे इनमें से कई ग्रन्थों को अपने साथ चीन ले गये और वहाँ इनका चीनी भाषा में अनुवाद किया गया। बौद्ध धर्म के भारतीय प्रचारक भी देश-विदेश में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए कई ग्रन्थों को अपने साथ ले गये। एशिया में फैले विभिन्न बौद्ध विहारों में ये पांडुलिपियाँ वर्षों तक संरक्षित रहीं। बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र तिब्बत के ल्हासा मठ में बौद्ध धर्म की पालि, संस्कृत, चीनी तथा तिब्बती भाषा की तमाम पाण्डुलिपियाँ आज भी संरक्षित हैं और अब इन ग्रन्थों से आधुनिक भाषाओं में अनुवाद तैयार किये जा रहे हैं।
प्रश्न 3. वर्धमान महावीर की शिक्षाओं का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वर्धमान महावीर के जन्म से पहले छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म के मूल सिद्धान्त उत्तर भारत में प्रचलित थे। महावीर को चौबीसवाँ तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है-जीवन रूपी किश्ती को भव-सागर के पार पहुँचाना। महावीर से पूर्व ऐसे 23 तीर्थंकरों का प्रमाण मिलता है। वर्धमान महावीर ने अपने से पूर्व इन्हीं 23 तीर्थंकरों की शिक्षाओं का प्रचार- प्रसार कर उन्हें आगे बढ़ाया।
वर्धमान महावीर की शिक्षाएँ -वर्धमान महावीर की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं
1.
समस्त संसार प्राणवान है-यह जैन धर्म की सबसे प्रमुख
अवधारणा है। वर्धमान महावीर के अनुसार समस्त संसार में कुछ भी निर्जीव नहीं है। यह
भगवान महावीर की गहन अन्तर्दृष्टि थी।
2.
अहिंसा जैन धर्म की जीवों के प्रति इस अपार करुणा के
भाव ने समस्त भारतीय चिन्तन को बहुत ही गहन रूप से प्रभावित किया है। महावीर के
अनुसार आत्मा केवल मनुष्यों में ही नहीं पशुओं, कीड़ों, पेड़-पौधों आदि सभी में होती
है।
3.
जीवन चक्र और कर्मवाद-जैन दर्शन के अनुसार जन्म और
पुनर्जन्म का चक्र कर्मानुसार निर्धारित होता है। कर्मों के अनुरूप ही पुनर्जन्म
होता है इसलिये मनुष्य को पाप कर्म करने से बचना चाहिए।
4.
तप-आवागमन के बन्धन से छुटकारा पाने का एक ही मार्ग
त्याग और तपस्या है। सांसारिक मायाजाल में न पड़कर मनुष्य को इस बन्धन से मुक्त
होने के लिए प्रयास करना चाहिए। मुक्ति का प्रयास संसार को त्याग कर विहारों में
निवास कर तपस्या द्वारा ही फलीभूत होगा।
5.
पंच महाव्रत—जैन धर्म में पंच महाव्रतों का सिद्धान्त दिया गया है; ये हैं-अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अपरिग्रह, इन्द्रिय निग्रह।
6.
ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति–वर्धमान महावीर ईश्वर के
अस्तित्व में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते थे। वे यह नहीं मानते थे कि ईश्वर ने
संसार की रचना की है। जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखता है। महावीर के
उपदेशों का मुख्य उद्देश्य अपनी आत्मा को सांसारिक बन्धनों से छुड़ाकर मुक्ति
प्राप्त करना है।
7.
वेदों में अविश्वास जैन धर्म को मानने वाले वेदों को
ईश्वरीय ज्ञान नहीं मानते। वे वेदों में मुक्ति हेतु दिये गये साधनों, यज्ञ, जप, तप, हवन आदि को व्यर्थ समझते
हैं।
8.
जाति-पाँति में अविश्वास-जैन धर्म के अनुयायी
जाति-पाँति में विश्वास नहीं करते हैं। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। जाति के
आधार पर कोई छोटा या बड़ा नहीं होता।
9.
स्याद्वाद-जैन धर्म में स्याद्वाद का प्रमुख स्थान है; कोई भी मनुष्य सम्पूर्ण सत्य
के ज्ञान का दावा नहीं कर सकता। सत्य बहुत व्यापक है, इसके अनेक पक्ष होते हैं।
देश, काल और परिस्थिति के अनुसार
मनुष्य को सत्य का आंशिक ज्ञान ही प्राप्त होता है।
प्रश्न 4."बौद्ध धर्म, बुद्ध के जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी तेजी से फैला।" उपयुक्त तर्कों सहित कथन की पुष्टि कीजिए।
अथवा
बुद्ध की शिक्षाओं और ई. की प्रथम सदी के बाद बौद्ध अवधारणाओं और व्यवहार में आए विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बुद्ध के जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी बौद्ध धर्म तेजी से फैला क्योंकि लोग समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असंतुष्ट थे तथा उस युग में तेजी से हो रहे सामाजिक बदलावों ने उन्हें उलझनों में बाँध रखा था। बौद्ध शिक्षाओं में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की बजाय जिस तरह अच्छे आचरण एवं मूल्यों को महत्व दिया गया उससे महिलाएँ तथा पुरुष इस धर्म की ओर आकर्षित हुए। खुद से छोटे तथा कमजोर लोगों की ओर मित्रता तथा करुणा के भाव को महत्व देने के आदर्श बहुत से लोगों को अच्छे लगे।
बुद्ध का मानना था कि समाज मनुष्य निर्मित है न कि ईश्वर द्वारा। इसीलिए उन्होंने राजाओं तथा गृहपतियों को दयावान एवं आचारवान होने की सलाह दी। मान्यता थी कि निजी प्रयास से सामाजिक परिवेश को बदला जा सकता था। बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार अनित्य है तथा लगातार बदल रहा है, यह आत्माविहीन (आत्मा) है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है। इस क्षणभंगुर संसार में दुःख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्व है। मनुष्य को संसार के दुखों से मुक्ति पाने के लिए घोर तपस्या तथा विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए।
बुद्ध ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्म-ज्ञान एवं निर्वाण के लिए व्यक्ति-केन्द्रित हस्तक्षेप तथा सम्यक कर्म की कल्पना की। निर्वाण का अर्थ था-- अहं एवं इच्छा का खत्म हो जाना। इससे गृहत्याग करने वालों के द:ख के चक्र का अंत हो सकता था। बुद्ध ने अपने शिष्यों के रहने हेतु संघ की स्थापना की, जो धम्म के शिक्षक बनने वाले भिक्षुओं की संस्था थी। यहाँ वे एक सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनके पास जीवनयापन हेतु अत्यावश्यक चीजों के अतिरिक्त कुछ नहीं होता था। उदाहरण के तौर पर, वे दिन में एक बार उपासकों से भोजन दान पाने हेतु एक कटोरा रखते थे।
हालांकि प्रारंभ में केवल पुरुषों को ही संघ में सम्मिलित होने की अनुमति थी लेकिन बाद में महिलाओं को भी अनुमति मिली। संघ में सम्मिलित होने वाली कई स्त्रियाँ धम्म की उपदेशिकाएँ बन गईं तथा बाद में वे 'थेरी' बनी जिसका अर्थ है ऐसी महिलाएँ जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो। बुद्ध के अनुयायियों में अलग-अलग सामाजिक वर्गों के लोग सम्मिलित थे जिनमें राजाए धनवान, गृहपति तथा सामान्य जन (कर्मकार, दास तथा शिल्पी आदि) सभी शामिल थे। एक बार संघ में आने के बाद सभी को बराबर माना जाता था तथा उनकी पुरानी पहचान खत्म हो जाती थी। संघ की संचालन पद्धति गणों तथा संघों की परंपरा पर आधारित थी जिसके तहत लोग बातचीत के माध्यम से एकमत होने का प्रयास करते थे। यदि यह संभव नहीं होता था तो मतदान के माध्यम से निर्णय लिया जाता था।
प्रश्न 5. साँची स्तूप की भव्य मूर्तिकला की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बहुत-सी ऐसी जगहों को, जहाँ पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष; जैसे-उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाढ़ दिए गए थे, पवित्र माना जाता था। इन टीलों को स्तूप (संस्कृत में अर्थ टीला) कहा जाता था। 'अशोकावदान' नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से सभी महत्वपूर्ण शहरों में बाँटकर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया। भरहुत, साँची और सारनाथ जैसी जगहों पर ई. पू. दूसरी सदी तक स्तूपों का निर्माण हो चुका था। स्तूप का जन्म एक गोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ जिसे बाद में अंड' कहा गया। समय के साथ इसकी संरचना ज्यादा जटिल हो गई जिसमें कई चौकोर तथा गोल आकारों का संतुलन बनाया गया।
अंड के ऊपर एक छज्जे जैसा ढाँचा होता था जिसे हर्मिका कहते थे जो देवताओं के घर का प्रतीक था। हर्मिका से एक मस्तूल (जिसे यष्टि कहते थे) निकलता था जिस पर प्रायः एक छत्री लगी होती थी। पवित्र दुनिया को आम संसार से अलग करने के लिए टीले के चारों ओर एक वेदिका होती थी। साँची और भरहुत के प्रारंभिक स्तूप बिना अलंकरण के हैं जिनमें मात्र पत्थर की वेदिकाएँ तथा तोरणद्वार हैं। ये पत्थर की वेदिकाएँ किसी बाँस के या लकड़ी ( काठ) के घेरे के समान थीं और चारों दिशाओं में खड़े तोरणद्वार पर खूब नक्काशी की गई थी। अमरावती और पेशावर (पाकिस्तान) में शाह जी की ढेरी में स्तूपों में ताख और मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की कला के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं।
साँची की मूर्तिकला में फूस की झोंपड़ी तथा पेड़ों वाले ग्रामीण दृश्य के चित्र दिखाई देते हैं। इतिहासकार इन्हें वेसान्तर जातक' से लिया गया एक दृश्य बताते हैं। यह कहानी एक ऐसे दानी राजकुमार के बारे में है जो अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर स्वयं अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ वन में चला गया। एक अन्य मूर्ति में तोरणद्वार के किनारे एक वृक्ष को पकड़कर झूलती हुई स्त्री दिखाई देती है जो 'शालभंजिका' है जिसे शुभ माना जाता था। इन मूर्तियों में जानवरों; जैसे-हाथी, घोड़े, बंदर तथा गाय-बैल आदि के बहुत खूबसूरत उत्कीर्णन पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त सर्पो की आकृतियाँ भी कई स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं।
प्रश्न 6. स्तूपों की खोज एवं साँची तथा अमरावती के स्तूपों की नियति की विवेचना कीजिए।
अथवा
साँची के स्तूप संरक्षित रहे, परन्तु अमरावती के स्तूप संरक्षित नहीं रहे ऐसा क्यों? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
अमरावती स्तूप की नियति साँची स्तूप से कैसे भिन्न थी? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
उन्नीसवीं शताब्दी में साँची स्तूप, किस प्रकार की संरक्षण नीति की सफलता के जीते जागते उदाहरण हैं? व्याख्या कीजिए। अमरावती के स्तूपों के सम्बन्ध में ऐसा क्यों नहीं है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
o अमरावती का स्तूप जो कि साँची के स्तूप से भी पूर्वकाल का है, की खोज अकस्मात् ही हुई। 1796 ई. में एक स्थानीय राजा मन्दिर का निर्माण कराना चाहता था जिसे इसके लिए पत्थरों की आवश्यकता थी।
o पत्थरों की खोज के प्रयास में अचानक ही अमरावती के स्तूप के अवशेष प्राप्त हो गये।
o राजा को स्तूप के अवशेष देखकर लगा कि शायद यहाँ कोई प्राचीन खजाना दबा हुआ है।
o समयोपरान्त एक अंग्रेज अधिकारी कॉलिन मैकेंजी ने इस क्षेत्र का भ्रमण करके अनेक पुरातात्त्विक अवशेषों, जैसे मूर्तियों आदि, का एकत्रीकरण किया।
o मैकेंजी ने इन सभी अवशेषों का चित्रांकन करवाया, लेकिन उनका यह पुरातात्विक शोध-कार्य अप्रकाशित ही रहा।
o 1854 ई. में आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर नामक जिले के कमिश्नर एलियट ने अमरावती का दौरा किया।
o वहाँ से वे कई पुरातात्त्विक अवशेषों; जैसे कि मूर्तियों और उत्कीर्णित पत्थरों को मद्रास ले गये।
o एलियट के ही नाम पर इन पत्थरों का नाम एलियट संगमरमर पड़ा।
o एलियट ने वहाँ उत्खनन कार्य के दौरान पश्चिमी मुख्य द्वार (तोरणद्वार) को भी खोज निकाला।
o एलियट ने अपने निष्कर्षों के आधार पर अमरावती के स्तूप को बौद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप घोषित किया।
o तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी पुरातात्त्विक अवशेषों में बहुत रुचि रखते थे, वे इन्हें आर्टपीस के रूप में अपने ड्राइंग रूम में और बागों में रखते थे। इसलिए 1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर काफी मात्रा में अंग्रेज अधिकारियों द्वारा ले जाये गये।
o इंडिया ऑफिस मद्रास और एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में भी अमरावती के कुछ उत्कीर्णित पत्थरों का संग्रह है।
o कुछ अंग्रेज अधिकारी इन पत्थरों को इंग्लैण्ड तक ले गये। प्रत्येक नया अधिकारी अपने से पूर्व अधिकारी द्वारा की गई इन पुरातात्त्विक अवशेषों की लूट की परम्परा का पालन करता था।
o साँची और अमरावती के स्तूपों की नियति-एक अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल इस प्रकार के पुरातात्त्विक अवशेषों की लूट से बहुत दुखी थे जिन्हें यह बात बहुत पीड़ा देती थी।
o पुरातात्त्विक अवशेषों के संरक्षण का यह अमूल्य सुझाव तत्कालीन अधिकारियों की समझ में नहीं आया।
o एच. एच. कोल अपने सुझाव पर उन अधिकारियों को राजी न कर सके। इस प्रकार अमरावती का स्तूप अंग्रेज अधिकारियों की पुरातात्विक अवशेषों की लूट के कारण नष्ट हो गया।-साँची के स्तूप की खोज, अमरावती के स्तूप की खोज (1796) के लगभग 22 वर्ष बाद 1818 ई. में हुई।
इस लम्बे अन्तराल में लोगों की सोच में बदलाव आया, पुरातात्विक संरक्षण के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी। लोगों को पुरातत्वविद् एच. एच. कोल की पुरातात्त्विक अवशेषों को उठाकर ले जाने के बजाय पुरास्थल पर ही संरक्षित करने की आवश्यकता की बात समझ में आने लगी। लेकिन फिर भी कुछ अधिकारियों ने साँची के तोरणद्वारों को लन्दन या पेरिस ले जाने का प्रयास किया लेकिन भोपाल की शासक शाहजहाँ बेगम की जागरूकता से यह प्रयास विफल हो गया। भोपाल के शासकों ने साँची के स्तूप के संरक्षण में व्यक्तिगत रूप से रुचि ली। साँची स्तूप के रख-रखाव, संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता उनके द्वारा दी गयी। इस प्रकार साँची का स्तूप आज अपनी जगह पर विद्यमान है, जबकि अमरावती का विशाल स्तूप पूरी तरह नष्ट होकर एक टीले के रूप में शेषमात्र है।
प्रश्न 7.“मूर्तियों का अर्थ समझने के लिए इतिहासकारों को उनके पीछे की कहानियों से परिचित होना पड़ा।" ई.पू. 600 से ई. 600 तक बौद्ध और हिन्दूकला से उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
अथवा
"बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए कला इतिहासकारों को बुद्ध के चरित लेखन के बारे में समझ बनानी पड़ी।" कथन को मूर्तिकला की विशेषताओं के साथ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
o बौद्ध मूर्तिकला को समझने के लिए कला इतिहासकारों को बुद्ध के चरित लेखन के बारे में समझ बनानी पड़ी।
o बौद्धचरित लेखन के अनुसार बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए हुई। प्रारंभ में कई मूर्तिकारों ने बुद्ध को मानव रूप में न दिखाकर उनकी उपस्थिति प्रतीकों के माध्यम से दर्शाने की कोशिश की। उदाहरण के तौर पर, रिक्त स्थान बुद्ध के 'ध्यान की दशा' एवं स्तूप 'महापरिनिब्बान' के प्रतीक बन गए।
o इसके अतिरिक्त चक्र का भी प्रतीक के रूप में प्रायः उपयोग किया गया जोकि यह बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश का प्रतीक था।
o हालाँकि ऐसी मूर्तिकला को अक्षरशः नहीं समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, वृक्ष का तात्पर्य केवल एक वृक्ष नहीं था
o बल्कि वह बुद्ध के जीवन की एक घटना का प्रतीक था।
o ऐसे प्रतीकों को समझने के लिए इतिहासकारों के लिए कलाकृतियों के निर्माताओं की परंपराओं को जानना आवश्यक है।
o बौद्ध कला के उदाहरण-संभवतः साँची में उत्कीर्णित अनेक अन्य मूर्तियाँ बुद्ध मत से सीधी संबद्ध नहीं थीं। इन मूर्तियों में कुछ सुंदर स्त्रियाँ भी उत्कीर्णित हैं।
o ये तोरणद्वार के किनारे एक वृक्ष को पकड़ कर झूलती हुई दिखती हैं। यह संस्कृत भाषा में वर्णित 'शालभंजिका' की मूर्ति है।
o मान्यता थी कि इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिलकर फल होने लगे थे। साँची में जातकों से ली गई जानवरों (जिनमें हाथी, घोड़े, बंदर तथा गाय-बैल आदि शामिल हैं) की कई कहानियाँ हैं।
o हाथी को शक्ति तथा ज्ञान का प्रतीक माना जाता था।
o इन प्रतीकों में कमल दल तथा हाथियों के बीच एक महिला की मूर्ति प्रमुख है। ये हाथी उनके ऊपर जल छिड़क रहे हैं जैसे वे उनका अभिषेक कर रहे हों। कुछ इतिहासकार उन्हें बुद्ध की माँ माया से जोड़ते हैं तो कुछ उन्हें एक लोकप्रिय देवी गजलक्ष्मी मानते हैं।
o गजलक्ष्मी सौभाग्य लाने वाली देवी थीं जिन्हें प्रायः हाथियों के साथ जोड़ा जाता है। हिन्दूकला के उदाहरण-साँची जैसी जगहों में स्तूप के अपने विकसित रूप में आने के काल में ही देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए सबसे पहले मंदिर भी बनाए गए।
o ये मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में थे। इन्हें 'गर्भगृह' कहा जाता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा (जिसे शिखर कहा जाता था) बनाया जाने लगा।
o मंदिर की दीवारों पर प्रायः भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे। मंदिरों के स्थापत्य का बाद के युगों में बड़े स्तर पर विकास हुआ।
o इस दौरान मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल, ऊँची दीवारें तथा तोरणों को जोड़ा गया। प्रारंभ के मंदिरों में से कुछ मंदिरों को पहाड़ियों को काट कर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाया गया था।
o सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफाओं का निर्माण ई.पू. तीसरी सदी में अशोक के आदेश से आजीविक संप्रदाय के संतों के लिए किया गया था।
o यह परंपरा अलग-अलग चरणों में विकसित होती रही। इसका सबसे विकसित रूप हम आठवीं सदी के कैलाशनाथ (शिव का एक नाम) के मंदिर में देख सकते हैं जिसमें पूरी पहाड़ी काटकर उसे मंदिर का रूप दे दिया गया था।
प्रश्न 8. “ई. पू. 600 से ई. 600 तक पौराणिक हिन्दू धर्म में विभिन्न विचारों, मूर्तियों और मंदिरों का विकास हुआ।" कथन को सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
o 600 से ई. पू. 600 ई. तक पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय हो चुका था जिसमें वैष्णव (इस हिन्दू परंपरा में विष्णु को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना जाता है) तथा शैव (इसमें शिव परमेश्वर है) परम्पराएँ शामिल हैं। इनके अंतर्गत एक विशेष देवता की पूजा को विशेष महत्व दिया जाता था।
o ऐसी आराधना में उपासना तथा ईश्वर के बीच का रिश्ता प्रेम एवं समर्पण का रिश्ता माना जाता था जिसे भक्ति कहते हैं। वैष्णववाद में कई अवतारों (दस अवतार) के इद्र-गिद्र पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। मान्यता थी कि पापियों के बढ़ते प्रभाव के कारण जब संसार में अव्यवस्था और विनाश की स्थिति आ जाती थी तब भगवान स्वयं संसार की रक्षा के लिए अलग-अलग रूपों में अवतार लेते थे।
o संभवतः अलग-अलग अवतार देश के अलग-अलग हिस्सों में लोकप्रिय थे। इन सब स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लेना एकीकृत धार्मिक परंपरा के निर्माण की एक महत्वपूर्ण विधि थी।
o कई अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया है। अन्य देवताओं की भी मूर्तियाँ बनीं। शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में बनाया जाता था, लेकिन उन्हें कई बार मनुष्य के रूप में भी दिखाया गया है।
o ये सारे चित्रण देवताओं से जुड़ी हुई मिश्रित अवधारणाओं पर आधारित थे। उनकी खूबियों तथा प्रतीकों को उनके शिरोवस्त्र, आभूषण, आयुधों (हथियार तथा हाथ में धारण किए गए अन्य शुभ अस्त्र) तथा बैठने की शैली से दर्शाया जाता था।
o कई कहानियाँ प्रथम सहस्राब्दि के मध्य से ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में पाई जाती हैं। सामान्यत: इन कहानियों को संस्कृत श्लोकों में लिखा गया था जिन्हें ऊँची आवाज में पढ़ा जाता था जिसे कोई भी (महिलाएँ व शूद्र भी) सुन सकता था।
o पुराणों की अधिकांश कहानियों का विकास लोग आपसी मेल-मिलाप से हुआ। पुजारी, व्यापारी तथा आम स्त्री-पुरुष एक-दूसरे स्थान पर आते-जाते हुए अपने विश्वासों तथा अवधारणाओं का आदान-प्रदान करते थे। उदाहरण के तौर पर, वासुदेव-कृष्ण मथुरा क्षेत्र के महत्वपूर्ण देवता थे लेकिन कई शताब्दियों के दौरान उनकी पूजा देश के अन्य क्षेत्रों में भी होने लगी। देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए मंदिरों का निर्माण किया गया जो एक चौकोर कमरे के रूप में थे जिन्हें 'गर्भगृह'
(देवगढ़ मंदिर, उत्तर प्रदेश) कहा जाता था।
o धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा (जिसे शिखर कहा जाता था) बनाया जाने लगा। मंदिर की दीवारों पर प्रायः भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे।
o मंदिरों के स्थापत्य का बाद के युगों में बड़े स्तर पर विकास हुआ। इस दौरान मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल, ऊँची दीवारें तथा तोरणों को जोड़ा गया।
o प्रारंभ के मंदिरों में से कुछ मंदिरों की पहाड़ियों को काटकर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाया गया था।
o आठवीं सदी का कैलाशनाथ (शिव का एक नाम) मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है जिसमें पूरी पहाड़ी काटकर उसे मंदिर का रूप दे दिया गया था।

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