Class-12 History
Chapter- 6 (भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में
बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ)
सुमेलित प्रश्न
प्रश्न 1. खण्ड 'क' को खण्ड 'ख' से सुमेलित कीजिए
|
खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
|
(काल) |
(भक्ति सन्त) |
|
(1) शंकर देव |
1440-1518 |
|
(2) नानक |
1449-1568 |
|
(3) मीराबाईउत्तर |
1469-1538 |
|
(4) कबीरखण्ड |
1498-1546 |
उत्तर:
|
खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
|
(काल) |
(भक्ति सन्त) |
|
(1) शंकर देव |
1449-1568 |
|
(2) नानक |
1469-1538 |
|
(3) मीराबाईउत्तर |
1498-1546 |
|
(4) कबीरखण्ड |
1440-1518 |
प्रश्न 2. खण्ड 'क' को खण्ड 'ख' से सुमेलित कीजिएखण्ड'क'
|
खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
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(1) धन्ना |
नाई |
|
(2) सेना |
मोची |
|
(3) रविदास |
जुलाहा |
|
(4) कबीर |
जाट |
उत्तर:
|
खण्ड 'क' |
खण्ड 'ख' |
|
(1) धन्ना |
जाट |
|
(2) सेना |
नाई |
|
(3) रविदास |
मोची |
|
(4) कबीर |
जुलाहा |
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. देवी की आराधना
पद्धति को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
देवी की आराधना पद्धति को 'तांत्रिक' के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 2. इतिहासकार
भक्ति परम्परा को कितने वर्गों में बाँटते हैं?
उत्तर:
इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो वर्गों में बाँटते हैं-
1.
सगुण तथा
2.
निर्गुण।
प्रश्न 3. प्रारंभिक
भक्ति आन्दोलन कब व किसके नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ?
उत्तर:
प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन लगभग छठी शताब्दी में अलवारों एवं नयनारों
के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ।
प्रश्न 4. अलवार और नयनार
सन्त कौन थे?
उत्तर:
अलवार सन्त विष्णु के उपासक थे, जबकि
नयनार संत शिव के उपासक थे।
प्रश्न 5. अलवार
सन्तों के मुख्य काव्य संकलन का नाम बताइए।
अथवा
अलवारों के उस मुख्य काव्य संकलन का नाम लिखिए, जिसका वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था।
उत्तर:
नलयिरादिव्यप्रबन्धम्।
प्रश्न 6. अलवार
परम्परा की स्त्री भक्त का नाम बताइए।
अथवा
स्तम्भ को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छन्दों
में व्यक्त करने वाली प्रथम अलवार स्त्री भक्त का नाम लिखिए।
उत्तर:
अंडाल।
प्रश्न 7. नयनार
परम्परा की उस महिला भक्त का नाम लिखिए, जिसने अपने उद्देश्य
की प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया।
उत्तर:
करइक्काल अम्मइयार।
प्रश्न 8. दक्षिण भारत
में ब्राह्मणीय एवं भक्ति परम्परा को किन शासकों ने समर्थन दिया?
उतर:
चोल शासकों ने।
प्रश्न 9. चोल शासकों
ने किन-किन शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया?
उत्तर:
1.
चिदम्बरम
2.
तंजावुर तथा
3.
गंगैकोंडचोलपुरम के मन्दिर।
प्रश्न 10. कर्नाटक
में बारहवीं शताब्दी में एक नवीन आन्दोलन का उद्भव किसके नेतृत्व में हुआ?
अथवा
उस लिंगायत भक्त का नाम लिखिए जिसने बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक
में नए आंदोलन का नेतृत्व किया।
उत्तर:
बासवन्ना।
प्रश्न 11. बासवन्ना
के अनुयायी क्या कहलाते थे?
उत्तर:
वीरशैव (शिव के वीर) एवं लिंगायत (लिंग धारण करने वाले)।
प्रश्न 12. दिल्ली
सल्तनत की नींव किसने रखी?
उत्तर:
तुर्क और अफगानों ने।
प्रश्न 13. शरिया से
क्या आशय है?
उत्तर:
मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाले कानूनों को शरिया कहा जाता
है। ये कुरान शरीफ व हदीस पर आधारित हैं।
प्रश्न 14. हदीस का
क्या अर्थ है?
उत्तर:
हदीस का अर्थ है- पैगम्बर मोहम्मद साहब
से जुड़ी परम्पराएँ; जिनके अन्तर्गत उनकी स्मृति से
जुड़े शब्द और क्रियाकलाप आदि आते हैं, हदीस कहा जाता
है।
प्रश्न 15. जज़िया
क्या था?
उत्तर:
जज़िया एक प्रकार का धार्मिक कर था जिसे प्रायः मुस्लिम शासकों
द्वारा गैर-इस्लामिक लोगों से लिया जाता था। इस कर को देने के पश्चात् गैर इस्लामी
लोग राज्य से संरक्षण पाने के अधिकारी हो जाते थे।
प्रश्न 16. सूफी कौन थे?
उत्तर:
इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद
और वैराग्य की ओर अधिक झुकाव था,' हैं सूफी कहा जाता
था।
प्रश्न 17. किन्हीं दो
सूफी सिलसिलों के नाम लिखिए।
उत्तर:
1.
चिश्ती तथा
2.
कादरी।
प्रश्न 18. सूफी सिलसिले के
किन्हीं दो मुख्य उपदेशकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
1.
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती तथा
2.
शेख निजामुद्दीन औलिया।
प्रश्न 19. यदि आप
अजमेर की यात्रा करेंगे तो वहाँ स्थित किस सूफी सन्त की दरगाह की जियारत करेंगे?
उत्तर:
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती।
प्रश्न 20. किस सूफी संत की
रचनाएँ गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित हैं?
उत्तर:
बाबा फरीद।
प्रश्न 21. अमीर खुसरो कौन
था?
उत्तर:
अमीर खुसरो महान कवि, संगीतज्ञ एवं शेख
निजामुद्दीन औलिया का अनुयायी था।
प्रश्न 22. 'पद्मावत' के रचयिता का नाम लिखिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी। रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए:
प्रश्न 23. कबीर की बानियाँ
कबीर बीजक, कबीर ग्रंथावली तथा ........... में संकलित
हैं।
उत्तर:
आदि ग्रन्थ साहिब।
प्रश्न 24. कबीर के
रहस्यवादी अनुभवों को दर्शाने वाली किन्हीं दो अभिव्यंजनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
कबीर की 'केवल ज फूल्या फूल बिन' और 'समदरि लागि आगि' जैसी अभिव्यंजनाएँ उनके रहस्यवादी अनुभवों पर प्रकाश डालती हैं।
प्रश्न 25. कबीर के
गुरु कौन थे?
उत्तर:
गुरु रामानन्द।
प्रश्न 26. उस बोधवर्धक या
सिख समुदाय के गुरु की पहचान कीजिए और उनका नाम लिखिए जिनके कार्यों और • योगदानों को नीचे दिया गया है:
उन्होंने खालसा पंथ की नींव डाली। - उन्होंने
अपने सिखों को पाँच भिन्न प्रतीक समर्पित किए। - उन्होंने समुदाय को सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के
रूप में संगठित किया। - उन्होंने नौवें गुरु, गुरु तेग
बहादुर की रचनाओं को गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित किया।
उत्तर:
गुरु गोविन्द सिंह।
प्रश्न 27.
बॉक्स में दी गई निम्नलिखित जानकारी को सावधानीपूर्वक पढ़िए :
सगुण भक्ति के भक्त की पहचान कीजिए और उसका नाम
लिखिए।
वह मारवाड़ के मेड़ता की एक राजपूत राजकुमारी
थी। उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया
गया। उसने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते हुए
पत्नी और माँ के परंपरागत दायित्वों को निभाने से इनकार किया। उसने प्रभु कृष्ण को अपना प्रेमी माना।
उत्तर:
मीराबाई।
प्रश्न 28. मीराबाई के
गुरु कौन थे?
उत्तर:
मीराबाई के गुरु रैदास थे।
प्रश्न 29. शंकरदेव कौन थे?
उत्तर:
शंकरदेव पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में वैष्णव धर्म
के मुख्य प्रचारक थे।
प्रश्न 30. वैष्णव धर्म के
किस मुख्य प्रचारक के उपदेशों को भगवती धर्म के नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
शंकरदेव के उपदेशों को।
प्रश्न 31. इतिहासकार किसी
धार्मिक परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए किन-किन स्रोतों का उपयोग करते
हैं?
उत्तर:
इतिहां कार किसी धार्मिक परम्परा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए
मूर्ति पूजा, स्थापत्य, धर्म
गुरुओं से जुड़ी कहानियों एवं काव्यों आदि अनेक स्रोता का उपयोग करते हैं।
प्रश्न 32. 'कश्फ-उल-महजुब' नामक पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर:
अली बिन उस्मान हुजवरी ने।
प्रश्न 33. मक्तुबात
क्या है?
उत्तर:
सूफी सन्तों द्वारा अपने अनुयायियों और सहयोगियों को लिखे गए पत्रों
के संकलन को मक्तुबात कहा जाता है।
प्रश्न 34. तजकिरा क्या है?
उत्तर:
सूफी सन्तों की जीवनियों का स्मरेण तजकिरा कहलाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 8वीं से 18वीं सदी के काल के साहित्य एवं मूर्तिकला की सबसे प्रभावी विशिष्टता क्या
रही?
उत्तर:
8वीं से 18वीं सदी के काल के साहित्य एवं
मूर्तिकला की सबसे प्रभावी विशिष्टता यह है कि दोनों में ही अनेक प्रकार के
देवी-देवता दृष्टिगत होते हैं। एक स्तर पर यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि विष्णु, शिव और देवी, जिन्हें अनेक रूपों में अभिव्यक्त
किया गया था, की पूजा की परम्परा न केवल जारी रही अपित
और अधिक विस्तृत हो गयी।
प्रश्न 2. 8वीं से 18वीं सदी तक की भक्ति और सूफी परम्पराओं को जानने के किन्हीं दो स्रोतों का
उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
8वीं से 18वीं सदी तक की भक्ति और सूफी
परम्पराओं को जानने के दो स्रोत इस प्रकार हैं-
1.
संत कवियों की रचनाएँ।
2.
संत कवियों के अनुयायियों द्वारा लिखी गई उनकी
जीवनियाँ।
प्रश्न 3. वैदिक
परम्परा एवं तान्त्रिक आराधना पद्धति में कभी-कभी संघर्ष की स्थिति क्यों उत्पन्न
हो जाती थी?
उत्तर:
वैदिक परम्परा के प्रशंसक उन सभी तरीकों की आलोचना करते थे जो ईश्वर
की उपासना के लिए मन्त्रों के उच्चारण एवं यज्ञों के संपादन से हटकर थे। इसके
विपरीत तान्त्रिक आराधना करने वाले लोग वैदिक परम्परा की अवहेलना करते थे। इसलिए
उनमें कभी-कभी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी।
प्रश्न 4. धर्म के
इतिहासकार भक्ति परम्परा को किन-किन वर्गों में विभाजित करते हैं? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो वर्गों में विभाजित करते
हैं-
1.
संगुण भक्ति तथा
2.
निर्गुणं भक्ति।
सगुण भक्ति में शिव, विष्णु एवं उनके अवतारों
तथा देवियों की साकार रूप में उपासना की जाती है, जबकि
निर्गुण भक्ति में निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है।
प्रश्न 5. अलवार
सन्तों के मुख्य संकलन का नाम लिखिए जिसे तमिल वेद भी बताया गया है। प्रथम
सहस्राब्दि के उत्तरार्द्ध क्षेत्रों के सरदारों ने इनकी मदद किस प्रकार की?
उत्तर:
अलवार सन्तों के एक मुख्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबंधम्' को तमिल वेद बताया गया है। प्रथम सहस्राब्दि के उत्तरार्द्ध क्षेत्रों के
सरदारों (जैसे-चोल सम्राट) ने विष्णु तथा शिव के मन्दिरों के निर्माण के लिए
भूमि-अनुदान दिए। इसके अतिरिक्त इन सन्तों को वेल्लाल कृषकों ने सम्मानित किया।
प्रश्न 6. लिंगायतों और
नयनारों के बीच एक समानता और एक असमानता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समानता: जाति-प्रथा का विरोध करना।
असमानता: लिंगायत शिव की पूजा लिंग के रूप में करते थे, जबकि नयनार शिव की पूजा मूर्ति और लिंग दोनों के रूप में करते थे।
प्रश्न 7. इस्लाम में 'शरिया का महत्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शरिया मुस्लिम समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है जो कुरान
शरीफ व हदीस पर आधारित है। इस्लाम में शरिया का महत्व इसलिए है क्योंकि यह इन
नियमों के बारे में जानकारी देता है, जिनका पालन करना
प्रत्येक मुस्लिम का कर्त्तव्य है।
प्रश्न 8. ज़िम्मी से आप
क्या समझते हैं?
उत्तर:
ज़िम्मी मुस्लिम शासन क्षेत्र में रहने वाले संरक्षित समुदाय थे। ये
वे लोग थे जो उद्घटित धर्मग्रन्थ को मानने वाले थे। ये इस्लामी शासकों के क्षेत्र
में रहने वाले यहूदी एवं ईसाई थे। ये जज़िया नामक कर चुकाकर मुसलमान शासकों द्वारा
संरक्षण दिये जाने के अधिकारी हो जाते थे। भारत में इसके अन्तर्गत हिन्दू समुदाय
को भी सम्मिलित किया गया।
प्रश्न 9. इस्लाम धर्म
के पाँच प्रमुख सिद्धान्त कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
इस्लाम धर्म के पाँच प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1.
अल्लाह एकमात्र ईश्वर है तथा पैगम्बर मोहम्मद उनके
दूत (शाहद) हैं।
2.
दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए।
3.
निर्धनों को खैःगत (ज़कात) बाँटी जानी चाहिए।
4.
रमजान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए।
5.
प्रत्येक मुसलमान को अपने जीवनकाल में कम-से-कम एक
बार हज के लिए मक्का जाना चाहिए।
प्रश्न 10. मलेच्छ कौन
थे?
अथवा
मलेच्छ शब्द का प्रयोग किन लोगों के लिए किया जाता था?
उत्तर:
मलेच्छ शब्द का प्रयोग प्रवासी समुदायों के लिए किया जाता था। यह
नाम इस बात की ओर संकेत करता है कि ये वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं करते
थे एवं ऐसी भाषाओं को बोलते थे जिनका उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ था। -
प्रश्न 11. कश्मीर में 'मुकुट का नगीना' किस मस्जिद को माना जाता है?
उत्तर:
श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे निर्मित शाह हमदान मस्जिद को कश्मीर
की समस्त मस्जिदों में 'मुकुट का नगीना' माना जाता है। इस मस्जिद का निर्माण 1395 ई.
में हुआ था जो कश्मीरी लकड़ी की स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
प्रश्न 12. सूफी सम्प्रदाय
में सिलसिले का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सूफी सम्प्रदाय में सिलसिले का शाब्दिक अर्थ है जंजीर, जो शेख और मुरीद के मध्य एक निरन्तर रिश्ते का प्रतीक है। इस रिश्ते की पहली
अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद से जुड़ी है। इस कड़ी के माध्यम से आध्यात्मिक शक्ति
एवं आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता है।
प्रश्न 13. ज़ियारत की
परम्परा को 'उर्स' क्यों कहा
जाता था?
उत्तर:
विवाह अर्थात् पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन को उर्स कहा जाता है।
सूफी मत को मानने वाले लोगों का मत था कि मृत्यु के पश्चात् पीर ईश्वर में विलीन
हो जाते हैं। इस प्रकार वे पहले की अपेक्षा ईश्वर के अधिक निकट हो जाते हैं। इसी
कारण जियारत की परम्परा को 'उर्स' कहा जाता है।
प्रश्न 14. सूफी
सन्तों की प्रसिद्धि के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
1.
सूफी सन्त दान में प्राप्त धन व सामग्री को खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था, समा की महफ़िलों आदि पर पूरी
तरह खर्च कर देते थे जिससे आम लोगों का झुकाव उनकी ओर बढ़ा।
2.
सूफी सन्तों की चमत्कारी शक्ति धर्म निष्ठा व विद्वता
में लोगों का पूर्ण विश्वास था।
प्रश्न 15. कबीर की
बानी कौन-कौन सी विशिष्ट परिपाटियों में संकलित हैं?
अथवा
कबीर की वाणी जिन पुस्तकों में संकलित है उनमें से किन्हीं दो के
नाम लिखिए।
उत्तर:
कबीर की बानी निम्नलिखित तीन विशिष्ट परिपाटियों में संकलित हैं-
1.
'कबीर बीजक' कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी
एवं उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है।
2.
कबीर ग्रन्थावली' का सम्बन्ध राजस्थान के
दादू पंथियों से है।
3.
इसके अतिरिक्त कबीर के कई पद आदि गुरु ग्रन्थ साहिब
में संकलित हैं।
प्रश्न 16. कबीर और
गुरु नानकदेव की विचारधाराओं में किन्हीं दो समानताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कबीर और गुरु नानकदेव की विचारधाराओं में दो समानताएँ निम्नलिखित
हैं
1.
दोनों ने धर्म के सभी बाह्य आडम्बरों को अस्वीकार
किया।
2.
दोनों ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।
प्रश्न 17. गुरुबानी
एवं गुरु ग्रन्थ साहिब क्या हैं? .
उत्तर:
सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव जी ने गुरुनानक और उनके चार
उत्तराधिकारियों तथा बाबा फरीद, रविदास व कबीर की बानी
को आदि ग्रन्थ साहिब में संकलित किया। इसी को गुरुबानी कहा जाता है। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने नवें गुरु
तेग बहादुर जी की रचनाओं को भी इसमें सम्मिलित किया और इस ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ
साहिब कहा गया।
प्रश्न 18. खालसा पंथ
की स्थापना किसने की? इस पंथ के पाँच प्रतीक कौन-कौन से
हैं?
उत्तर:
गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की स्थापना की।
उन्होंने खालसा के लिए पाँच प्रतीकों का निर्धारण किया
1.
बिना कटे केश
2.
कृपाण
3.
कच्छ
4.
कंघा तथा
5.
लोहे का कड़ा।
प्रश्न 24. मीराबाई
कौन थी? संक्षेप में बताइए।
अथवा
किस प्रकार मीरा ने जातिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया
था? समझाइए।
उत्तर:
मीराबाई भक्ति परम्परा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री हैं जो मेवाड़ के
सिसौदिया कुल की वधू थीं। मीरा ने कृष्ण को अपना एकमात्र पति स्वीकारा, जातिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन कर जोगिया वस्त्र धारण किए तथा
श्रीकृष्ण के प्रेम में कई भावना प्रधान गीतों की रचना की।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. 'महान' और 'लघु' परम्पराओं
से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
बीसवीं शताब्दी के समाजशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड द्वारा कृषक समाज
के धार्मिक, सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने हेतु 'महान' और 'लघु' परम्पराओं की अवधारणाएँ दी गईं। रेडफील्ड की इस अवधारणा के अनुसार कृषक
समाज उन कर्मकाण्डों और पद्धतियों का अनुसरण करने में अधिक रुचि रखते थे, जो समाज के अभिजात्य वर्ग द्वारा; जैसे- सम्राट
और पुरोहितों द्वारा अपनायी जाती थीं। इन कर्मकाण्डों को रेडफील्ड द्वारा 'महान' परम्पराएँ कहा गया।
इसके साथ ही रेडफील्ड ने पाया कि ये कृषक
समुदाय उन परम्पराओं का भी पालन करता था, जो इनसे सर्वथा अलग थीं। इन
परम्पराओं को उसने 'लघु' परम्पराओं
के नाम से सम्बोधित किया। यह भी अनुभव हुआ कि समय के साथ 'महान' और लघु' दोनों
ही परम्पराओं में परिवर्तन हुए। विद्वानों द्वारा इस वर्गीकरण के महत्व से इन्कार
भी किया गया, लेकिन इन शब्दों से जिस 'महानता' और 'लघुता' का अहसास होता है उस पर उन्हें आपत्ति है। विद्वानों के अनुसार सभी
परम्पराओं की अपनी विशिष्टता है।
प्रश्न 2. तान्त्रिक
पूजा पद्धति क्या है? इसकी विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर:
तान्त्रिक पूजा पद्धति से आशय-अधिकांशतः देवी की आराधना पद्धति को
तान्त्रिक पूजा पद्धति के नाम से जाना जाता है जिसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
हैं -
1.
तान्त्रिक पूजा पद्धति भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों
में प्रचलित थी।
2.
इसके अन्तर्गत स्त्री और पुरुष दोनों ही सम्मिलित थे।
3.
इस पूजा पद्धति में कर्मकांडीय सन्दर्भ में वर्ग एवं
वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी।
4.
इस पूजा पद्धति के विचारों ने शैव तथा बौद्ध दर्शन को
भी प्रभावित किया।
प्रश्न 3. प्रारंभिक
भक्ति परम्परा की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
प्रारंभिक भक्ति परम्परा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
1.
आराधना के तरीकों के क्रमिक विकास के दौरान अनेक बार
सन्त कवि ऐसे नेता के रूप में उभरे जिनके आस-पास भक्तजनों का मेला लगा रहता था।
2.
यद्यपि अनेक भक्ति परम्पराओं में ब्राह्मण देवताओं
एवं भक्तजनों के मध्य महत्वपूर्ण बिचौलिए बने रहे तथापि इन परम्पराओं ने स्त्रियों
एवं निम्न वर्गों को भी स्वीकृति व स्थान प्रदान किया।
3.
भक्ति परम्परा में विविधता थी।
4.
धर्म के इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो भागों में
बाँटते हैं -सगुण भक्ति एवं निर्गुण भक्ति।
5.
सगुण भक्ति परम्परा में शिव, विष्णु व उनके अवतार एवं
देवियों की मूर्ति रूप में उपासना सम्मिलित है, जबकि
निर्गुण भक्ति परम्परों में अमूर्त अथवा निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है।
प्रश्न 4. अलवार और नयनार
सन्तों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
तमिलनाडु के अलवार और नयनार सन्त प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन के
सूत्रधार थे। अलवार सन्तों के आराध्य भगवान विष्णु तथा नयनार सन्तों के आराध्य
भगवान शिव थे। अलवार और नयनार सन्त अपने इष्टदेवों की स्तुति तमिल भाषा में
भजन-गायन द्वारा करते थे। जगह-जगह भ्रमण करते हुए इन सन्तों ने कुंछ पावन स्थलों
को अपने आराध्य देवों का निवास स्थल घोषित किया तथा धीरे-धीरे राजाओं ने इन स्थलों
पर विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाया और आज ये स्थान तीर्थस्थलों के रूप में
विख्यात हैं। इन मन्दिरों में पूजा के समय इन सन्त कवियों के भजनों का गायन किया
जाता था और इन सन्तों की प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की जाती थी।
प्रश्न 5. अलवार और नयनार
भक्ति परम्परा में स्त्री भक्तों का क्या योगदान था?
उत्तर:
अलवार और नयनार दोनों भक्ति परम्पराओं में स्त्रियों की उपस्थिति एक
महत्वपूर्ण विशिष्टता थी। अंडाल और करइक्काल अम्मइयार नामक स्त्रियों के भक्ति
गीतों के गायन का प्रचलन आज भी तमिल क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाया जाता है।
अलवार समाज की अंडाल नामक स्त्री भक्त स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानती थी और
अपने भक्तिपूर्ण गीतों में अपनी प्रेम भावना को छन्दों के द्वारा व्यक्त करती थी।
नयनार परम्परा में करइक्काल अम्मइयार अपने आराध्य देव शिव की आराधना तप मार्ग के
द्वारा करती थी। करइक्काल अम्मइयार ने कठिन तपस्या का मार्ग अपने साध्य हेतु चुना।
अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग कर इन स्त्री भक्तों ने भक्ति मार्ग पर आगे बढ़कर
पुरुष सत्तात्मक आदर्शों को एक चुनौती दी।
प्रश्न 6. जाति प्रथा
के प्रति अलवार और नयनार सन्तों के दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। इनकी
रचनाओं को वेदों के समकक्ष क्यों कहा गया? स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर:
अलवार और नयनार सन्तों की परम्परा के सन्त एवं अनुयायी समाज के
विभिन्न वर्गों से आते थे; जैसे ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान और कुछ उन जातियों से भी थे, जिन्हें वैदिक परम्परा में अस्पृश्य माना जाता था। इतिहासकारों के अनुसार
अलवार तथा नयनार सन्तों ने सभी को एक समान माना तथा वैदिक परम्परा की ब्राह्मणवादी
जाति-व्यवस्था एवं ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरुद्ध समाज को एकजुट करने का प्रयास
किया।
अलवार सन्तों द्वारा रचित नलयिरादिव्यप्रबन्धम्
नामक काव्य ग्रन्थ को तमिल वेद के रूप में मान्यता दी गई है तथा इसे चारों वेदों
के समकक्ष कहा गया है। वैदिक परम्परा के चारों वेदों के समकक्ष इस ग्रन्थ को रखना
अलवार तथा नयनार सन्तों के प्रभुत्व का . उदाहरण है। यह प्रभुत्व सम्भवतः इतना
व्यापक इसलिए था क्योंकि इन सन्तों की परम्परा में जातिगत भेद नहीं था।
प्रश्न 7. वीरशैव मत के विषय
में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
कर्नाटक की 'वीरशैव' परम्परा पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में एक नवीन शैव
आन्दोलन आरंभ हुआ जिसे वीरशैवं मत अथवा लिंगायत मत भी कहा जाता है। इस आन्दोलन का
नेतृत्व कलाचुरी राजा के एक मंत्री बासवन्ना (1106-68 ई.)
द्वारा किया गया था। इनके अनुयायियों को वीरशैव (शिव के वीर) तथा लिंगायत (लिंग
धारण करने वाले) कहा गया। वीरशैव मत उस समय अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। जिसकी प्रमुख
शिक्षाओं का विवरण निम्नलिखित है -
1.
लिंगायत शिव को आराध्य मानकर उनकी पूजा लिंग-प्रतिरूप
में करते थे।
2.
लिंगायतों का मानना था कि मरणोपरान्त भक्त शिव में
लीन हो जाते हैं तथा पुनः संसार में जन्म नहीं लेते।
3.
वे पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानते थे।
4.
इस मत के समर्थक पुरुष वाम स्कंध पर चाँदी के एक
पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं; जिसे श्रद्धा की दृष्टि से देखा
जाता है।
5.
ये ब्राह्मणवाद के विरोधी थे।
6.
इस मत को समाज के गौण (निम्न) वर्गों का पूर्ण समर्थन
मिला।
7.
ब्राह्मण समाज ने जिन आचारों (जैसे- वयस्क विवाह व
विधवा पुनर्विवाह) को ठुकरा दिया था, उन्हें लिंगायतों ने स्वीकार
किया।
8.
वीरशैव परम्परा की व्युत्पत्ति इस आन्दोलन में शामिल
स्त्री-पुरुषों द्वारा कन्नड़ भाषा में रचे गए वचनों से हुई।
प्रश्न 8. 'ज़िम्मी' तथा 'उलमा' कौन थे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ज़िम्मी एक प्रकार से संरक्षित श्रेणी के लोग थे। जनसंख्या के
बहुसंख्यक भाग के लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी नहीं थे जिनमें यहूदी और ईसाई भी थे
जिन्हें ज़िम्मी (संरक्षित श्रेणी)कहा जाता था। इस्लामी शासक इनसे जज़िया नामक कर
लेकर इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। हिन्दुओं को भी इसी संरक्षित श्रेणी में रखा
गया।
उलमा यानी आलिम, जिसका आशय होता है
विद्वान। उलेमा इस्लाम धर्म के विशेषज्ञ होते थे, जिन्हें
विशेष दर्जा प्राप्त होता था। यह मौलवी से ऊपर की पदवी है। उलमाओं का कार्य शासकों
को मार्गदर्शन देना होता था कि वे शासन में शरिया का पालन करवाए। काज़ी, न्यायाधीश आदि पदों पर इस्लाम धर्म के इन विद्वानों को नियुक्त किया जाता
था।
प्रश्न 9. "इस्लाम और उसके
सिद्धान्तों का पूरे उपमहाद्वीप में दूर-दराज तक फैलाव हुआ।" कथन को स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर:
इस्लाम के आगमन के पश्चात् होने वाले परिवर्तन शासक वर्ग तक ही
सीमित न रहकर पूरे उपमहाद्वीप में दूर-दराज तक तथा विभिन्न सामाजिक समुदायों; जैसे- किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी आदि के बीच फैल गए। इस्लाम
धर्म को स्वीकार करने वालों ने सैद्धान्तिक रूप से इसकी पाँच मुख्य बातों को माना।
ये पाँच मुख्य बातें हैं-
1.
अल्लाह एकमात्र ईश्वर है तथा पैगम्बर मोहम्मद उनके
दूत हैं;
2.
दिन में पाँच बार नमाज पढ़नी चाहिए;
3.
जकात (खैरात, दान) बाँटनी चाहिए;
4.
रमजान के महीने में रोजे रखने चाहिए तथा
5.
हज के लिए मक्का जाना चाहिए।
कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए खोजा
इस्माइली (शिया) समुदाय के लोगों ने देशी साहित्यिक विधा का सहारा लिया। विभिन्न
स्थानीय भाषाओं में जीनन' नाम से भक्ति गीतों को गाया जाता था जो राग में
निबद्ध थे। इसके अतिरिक्त मालाबार तट (केरल) के किनारे बसे अरब मुसलमान
व्यापारियों में स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ 'मातृकुलीयता' एवं 'मातृगृहता' जैसे स्थानीय आचारों को भी अपनाया। इस प्रकार इस्लाम और उसके सिद्धान्तों
का पूरे उपमहाद्वीप में दूर-दराज तक फैलाव हुआ। .
प्रश्न 10. 'खानकाह' और 'सिलसिला' पर
संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
सूफीवाद ने 11वीं शताब्दी तक आते-आते एक
पूर्ण विकसित आन्दोलन का रूप ले लिया। सूफीवाद की कुरान से जुड़ी अपनी परम्परा थी
जिसके अनुसार सूफी अपने आपको एक संगठित समुदाय 'खानकाह' को केन्द्र में रखकर स्थापित करते थे। खानकाह एक फ़ारसी शब्द है।
खानकाह का नियंत्रण पीर, शेख (अरबी) अथवा मुर्शीद
(फारसी) द्वारा किया जाता था तथा ये लोग गुरु के रूप में जाने जाते थे। ये लोग
अपने अनुयायियों (मुरीदों) की भरती करते थे और अपने वारिस (खलीफा) का चुनाव करते
थे। खानकाह के नियमों का निर्धारण एवं संचालन इन्हीं के द्वारा होता था। - इसके
पश्चात् इस्लामी जगत में सूफी सिलसिलों अथवा कड़ी का गठन होने लगा।
सिलसिला का अर्थ है- जंजीर, जो शेख तथा मुरीद के बीच कड़ी का कार्य करती थी। पहली अटूट कड़ी अल्लाह और
पैगम्बर मोहम्मद साहब के बीच मानी जाती थी तथा इसके पश्चात् शेख और मुरीद आते थे।
इस सिलसिले या कड़ी के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद साहब की आध्यात्मिक शक्तियाँ शेख के
माध्यम से मुरीदों को प्राप्त होती थीं। शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर कादरी
सिलसिले का नाम पड़ा तथा चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया
है। सुहरावर्दी सिलसिला-दिल्ली सल्तनत के काल में तथा नक्शबन्दी सिलसिला मुगलकाल
में गठित हुआ।
प्रश्न 11. संकी मत
क्या है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोग रहस्यवाद एवं
वैराग्य की ओर आकर्षित हुए जिन्हें सूफी कहा जाने लगा। इन लोगों ने रूढ़िवादी
परिभाषाओं एवं धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान एवं सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार)
की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। इसके विपरीत इन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के
लिए अल्लाह की भक्ति एवं उनके आदेशों के पालन पर जोर दिया। इन्होंने पैगम्बर
मोहम्मद को इन्सान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने का उपदेश दिया। सूफियों ने
कुरान की व्याख्या की, जो उनके निजी अनुभवों पर आधारित
थी।
प्रश्न 12. सूफी
आन्दोलन एवं भक्ति-आन्दोलन की विचारधाराओं में क्या-क्या समानताएँ थीं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफ़ी आन्दोलन एवं भक्ति आन्दोलन के उद्गम स्थान अलग-अलग होने के
बावजूद दोनों की विचारधाराओं में निम्न समानताएँ थीं-
1.
एकेश्वरवाद दोनों एक ईश्वर में विश्वास करते थे।
सूफ़ियों ने परमात्मा को एक माना तथा स्वयं को उनकी सन्तान बताया, वहीं भक्ति-आन्दोलन के
सन्तों ने भी एक ईश्वर की महिमा का गुणगान किया।
2.
मानवतावाद दोनों सम्प्रदायों ने मानव को महत्वपूर्ण
स्थान प्रदान किया है और उन्हें प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया है।
3.
मानव मात्र से प्रेम - सूफी और भक्ति-आन्दोलन के
सन्तों ने लोगों को उपदेश दिया कि मनुष्य से प्रेम करना चाहिए क्योंकि मानव-प्रेम
ही ईश्वर-प्रेम है।
4.
गुरु की महिमा का गुणगान - सूफी एवं भक्ति सन्त दोनों
ने गुरु की महिमा का गुणगान किया है। सूफी गुरु को पीर कहते थे।
5.
सहनशीलता - सूफी तथा भक्ति-आन्दोलन के
सन्तों ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को साथ मिलकर रहने का उपदेश दिया
प्रश्न 13. "कबीर
चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दियों के सन्त-कवियों में अप्रतिम थे।" इस कथन को
उनके 'परम सत्यता' के वर्णन
के सन्दर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कबीर ने अनेक भाषाओं व बोलियों में मिलने वाली अपनी रचनाओं में से
कुछ में निर्गुण परम्परा की सन्त भाषा का प्रयोग किया है। कबीर की 'उलटबाँसियाँ' बहुत प्रसिद्ध हैं। जिनमें
बहुत-सी विरोधाभासी बातें हैं, जिनके अर्थ समझना बहुत
ही कठिन है। उलटबाँसियों में सामान्य प्रचलित अर्थों को उलट दिया गया है, जैसे कि "समंदर लागि आगि", केवल ज
फूल्या फूल बिन', आदि। ये अभिव्यंजनाएँ यह प्रमाणित
करती हैं कि परम सत्ता को समझना बहुत ही जटिल है।
कबीर ने परम सत्य को अनेक परिपाटियों की सहायता
से वर्णित किया। उन्होंने इस सत्य को इस्लामी दर्शन की तरह अल्लाह, खुदा, हजरत या पीर कहा। वेदान्त दर्शन से प्रभावित उन्होंने सत्य को अलख
(अदृश्य), निराकार, ब्रह्मन्
तथा आत्मज् कह कर भी संबोधित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'शब्द' व 'शून्य' जैसे कुछ अन्य शब्द-पदों का भी इस्तेमाल किया जो योगी परम्परा से लिए गए
प्रश्न 14. गुरु नानक
के प्रमुख उपदेश कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
गुरु नानक देव का जन्म 1469 ई. में
पंजाब के ननकाना गाँव (वर्तमान पाकिस्तान) के एक व्यापारी परिबार में हुआ था।
आरम्भ से ही उनका समय सूफी सन्तों के साथ व्यतीत होता था। उनके उपदेशों का
संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है'
1.
उन्होंने हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म-ग्रन्थों को नकारा।
2.
उन्होंने निर्गुण भक्ति का समर्थन किया।
3.
उन्होंने धर्म के सभी आडम्बरों-यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति-पूजा तथा कठोर तप का खण्डन किया।
4.
उनके अनुसार परमपूर्ण रब्ब (परमात्मा) का कोई लिंग
अथवा आकार नहीं है।
5.
उन्होंने परमात्मा की उपासना के लिए एक सरल उपाय, निरंतर स्मरण तथा जप
बताया।
प्रश्न 15. आप कैसे कह
सकते हैं कि कबीर और नानक सामाजिक चेतना के प्रहरी थे?
उत्तर:
मध्यकालीन भक्ति सन्तों में कबीर एवं नानक का स्थान बहुत उच्च है।
कबीर एवं नानक ने एक समान सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। कबीर एवं नानक इस बात
पर बल देते थे कि लोग समाज में व्याप्त बुराइयों को छोड़ें तथा एक आदर्श एवं
संयमित जीवन प्रणाली को अपनायें। कबीर एवं नानक कहते थे कि लोग सामाजिक बुराइयों, पाखण्डवाद तथा धार्मिक आडम्बरों के प्रति चेतना जाग्रत करें।
लोग स्वयं तय करें कि क्या अच्छा है तथा क्या
बुरा। लोग लकीर के फकीर न बनें बल्कि अपनी अन्तरात्मा की आवाज को स्वीकार करें।
कबीर और नानक के अनुसार हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही भ्रमित हैं तथा दोनों ही
ईश्वर से दूर हैं। कबीर और नानक ने लोगों को धार्मिक पाखण्डों तथा कर्मकाण्डों के
प्रति सचेत करने का प्रयास किया। अतः हम मान सकते हैं कि कबीर और नानक दोनों
सामाजिक चेतना के प्रहरी थे।
प्रश्न 16. मीराबाई के
विषय में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मीराबाई 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में सम्भवतः भक्ति परम्परा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री हैं।
उनकी जीवनी उनके लिखे भजनों के आधार पर संकलित की गई है; जो अनेक शताब्दियों तक मौखिक रूप से संचरित होते रहे। मीराबाई मारवाड़ के
मेड़ता जिले की एक राजपूत राजकुमारी थीं, जिनका विवाह
उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसौदिया कुल में कर दिया गया।
उन्होंने अपने पति की आज्ञा की अवहेलना करते
हुए पत्नी और माँ के परम्परागत दायित्वों को निभाने से मना किया तथा भगवान विष्णु
के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति स्वीकार किया। उनके सुसराल वालों ने उन्हें
विष देने का प्रयत्न किया जो विभिन्न कथाओं के अनुसार; अमृत बन गया। अन्ततोगत्वा
मीराबाई राजभवन से निकलकर एक घुमक्कड़ भक्त तथा गायिका बन गईं। मीराबाई ने मानव
अंतर्मन की भावप्रवणता को व्यक्त करने वाले अनेक भजनों की रचना की।
प्रश्न 17. शंकरदेव
कौन थे? संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत में पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में शंकरदेव
वैष्णव मत के मुख्य प्रचारक के रूप में उभरे जिनके उपदेशों को भगवती-धर्म कहकर
सम्बोधित किया जाता था, क्योंकि वे भगवद गीता और भागवत
पुराण पर आधारित थे। ये उपदेश सर्वोच्च देवता विष्णु के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव
पर केन्द्रित थे।
शंकरदेव ने भक्ति के लिए कीर्तन और सन्तों के
सत्संग में ईश्वर के नाम के उच्चारण पर बल दिया। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के
प्रचार के लिए सत्र अथवा मठ तथा नामघर जैसे प्रार्थनागृह की स्थापना को बढ़ावा
दिया। इस क्षेत्र में ये संस्थाएँ तथा आचार आज भी प्रचलित हैं। शंकरदेव की प्रमुख
काव्य रचनाओं में कीर्तनघोष' महत्वपूर्ण है। .
प्रश्न 18.
इतिहासकार धार्मिक परम्परा के इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए
किन-किन स्रोतों का उपयोग करते हैं?
उत्तर:
इतिहासकार धार्मिक परम्परा के इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए
अनेक स्रोतों का उपयोग करते हैं जिनमें प्रमुख हैं-मूर्तिकला, स्थापत्य कला, धर्मगुरुओं से जुड़ी कहानियाँ, दैवीय स्वरूप को जानने को उत्सुक स्त्री व पुरुषों द्वारा लिखी गई काव्य
रचनाएँ। मूर्तिकला एवं स्थापत्य कला का उपयोग इतिहासकार तभी कर सकते हैं जब उन्हें
इन आकृतियों और इमारतों को बनाने व उनका उपयोग करने वाले लोगों के विचारों, आस्थाओं तथा आचारों की समझ हो। धार्मिक विश्वासों से सम्बन्धित साहित्यिक
परम्पराओं को समझने के लिए हमें कई भाषाओं की जानकारी होनी चाहिए।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्रारम्भिक
भक्ति परम्पराओं को स्पष्ट करते हुए इनका जाति व राज्य के प्रति दृष्टिकोण का भी
उल्लेख कीजिए।
अथवा
अलवार और नयनार के राज्य और समाज के साथ सम्बन्धों का वर्णन
कीजिए। साथ ही अलवारों तथा नयनारों का जाति व्यवस्था के प्रति आचार-विचार का भी
वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रारंभिक भक्ति परम्परा:
धार्मिक इतिहासकारों ने भक्ति परम्परा को दो मुख्य वर्गों में बाँटा
है -
(1) सगुण (विशेषण सहित)
तथा
(2) निर्गुण (विशेषण
विहीन)।
प्रथम वर्ग में शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व
देवियों की आराधना आती है, जिनकी मूर्त रूप में आराधना
हुई तथा द्वितीय वर्ग में अमूर्त, निराकार ईश्वर की
उपासना की जाती थी।
प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन का उदय लगभग छठी
शताब्दी में अलवारों (विष्णु भक्ति में तन्मय) तथा नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व
में हुआ। वे तमिल भाषा में अपने इष्ट की स्तुति में भजन माते हुए एक स्थान से
दूसरे स्थान पर भ्रमण करते थे। अपनी यात्राओं के दौरान अलवार तथा नयनार सन्तों ने
कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवास स्थल घोषित किया। बाद में इन्हीं स्थलों पर
विशाल मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा वे तीर्थस्थल माने गए।
जाति के प्रति दृष्टिकोण:
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अलवार तथा नयनार सन्तों ने जाति-प्रथा
एवं ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई। यह बात कुछ हद तक सत्य प्रतीत
होती है क्योंकि भक्ति सन्त विविध समुदायों से थे; जैसे-ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान तथा कुछ तो अस्पृश्य माने जाने
वाली जातियों से थे। इन सन्तों की रचनाओं को वेद जितना महत्वपूर्ण बताकर इस
परम्परा को सम्मानित किया गया। उदाहरण के लिए, अलवार
सन्तों के एक मुख्य काव्य संकलन 'नलयिरादिव्यप्रबंधम्' का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था।
राज्य के प्रति दृष्टिकोण:
तमिल क्षेत्र में प्रथम सहस्राब्दि के उत्तरार्ध में राज्य का उद्भव
तथा विकास हुआ जिसमें पल्लव एवं पांड्य राज्य (छठी से नवीं शताब्दी ई.) शामिल थे।
हालाँकि कई शताब्दियों से मौजूद बौद्ध तथा जैन धर्म को इस क्षेत्र में व्यापारी व
शिल्पी वर्ग:का प्रश्रय प्राप्त था। इन धर्मों को यदा-कदा ही राजकीय संरक्षण तथा
अनुदान प्राप्त होता था।
बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रति उनका विरोध तमिल
भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु है। नयनार सन्तों की रचनाओं में विशेषतः विरोध
का स्वर उभर कर आता है। निःसंदेह शक्तिशाली चोल (नवीं से तेरहवीं शताब्दी)
सम्राटों ने ब्राह्मणी तथा भक्ति परम्परा को समर्थन देने के साथ ही विष्णु तथा शिव
के मन्दिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए। उदाहरण के लिए, चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से
ही बने। इसी काल में कांस्य में ढाली गई शिव की प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ।
अलवार तथा नयनार सन्त वेल्लाल कृषकों द्वारा
सम्मानित होते थे इसलिए सम्भवतया शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया।
उदाहरण के लिए, चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने का दावा किया तथा अपनी सत्ता के
प्रदर्शन के लिए सुंदर मन्दिरों का निर्माण कराया जिनमें पत्थर तथा धातु से बनी
मूर्तियाँ सुसज्जित थीं।
प्रश्न 2. भारत में इस्लाम
का प्रवेश कैसे हुआ? इस्लामी शासकों द्वारा प्रजा के
प्रति अपनाई गई नीतियों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अरब व्यापारी व्यापारिक कार्यों हेतु सामुद्रिक मार्ग से प्रथम
सहस्राब्दि ई. से ही पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आते रहते थे। भारत के उत्तर
पश्चिमी प्रान्तों में मध्य एशिया के लोग काफी संख्या में बस चुके थे। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद यह प्रदेश इस्लामी जगत का एक भाग
बन गया।
इस्लामी सत्ता की स्थापना:
एक अरब सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ईस्वी में सिंध पर विजय प्राप्त करके उसे खलीफा के राज्य में मिला लिया।
कुछ समय उपरान्त (लगभग 13वीं शताब्दी) तुर्कों द्वारा
दिल्ली सल्तनत की नींव रखी गई। तुर्कों ने धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार
दक्षिणी क्षेत्रों तक कर लिया। शनैः-शनैः बहुत से क्षेत्रों पर इस्लामी शासकों का
अधिकार हो गया। मुगल शासन की स्थापना (16वीं शताब्दी) तक यह
स्थिति बनी रही। इसके बाद 18वीं शताब्दी में कुछ नए
क्षेत्रीय राज्य अस्तित्व में आए पर इनमें से भी अधिकांश राज्यों के शासक इस्लाम
धर्म के अनुयायी थे।
इस्लामी सत्ता और प्रजा के बीच समन्वय:
मुसलमान शासकों को अपने राज्य संचालन की नीतियाँ उलमाओं द्वारा
प्रदत्त मार्गदर्शन के अनुसार निर्धारित करनी होती थीं। उलमाओं का यह दायित्व था
कि वे शासकों को शरिया के निर्देशों का पालन करवाने हेतु बाध्य करें और शासकों से
यह अपेक्षा की जाती थी कि वे उलमाओं द्वारा बताए गए आदर्शों का पालन करें तथा 'शरिया', जो कि कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित
कानून है, का अनुसरण जनसाधारण में सुनिश्चित करवाएँ, लेकिन इसमें एक कठिनाई यह थी कि भारतीय उपमहाद्वीप का एक बहुत बड़ा भाग
इस्लाम धर्म का अनुयायी नहीं था।
शासकों ने इस सम्बन्ध में ज़िम्मी' अर्थात् संरक्षित श्रेणी
की नीति अपनाई। संरक्षित श्रेणी के इन लोगों जैसे यहूदी और ईसाइयों को ज़िम्मी कहा
जाता था, मुसलमान शासक इनसे जज़िया नामक कर लेते थे और
बदले में इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। भारत में हिन्दुओं को भी इसी श्रेणी में
रखा गया। इस व्यवस्था के बाद मुगल शासक अपने आपको सभी समुदायों का शासक मानते थे।
इस्लामी शासकों की उदार और लचीली नीति:
इम्लामी शासकों ने बहुसंख्यक प्रजा को ध्यान में रखकर शासन की नीति
काफी उदार और लचीली रखी। अनेक शासकों द्वारा हिन्दू, जैन, पारसी, यहूदी, ईसाई
आदि के धार्मिक संगठनों को भूमि अनुदान तथा करों में व्यापक छूट प्रदान की गई।
इस्लामी शासकों ने अन्य धर्मों के प्रति श्रद्धा का भाव भी प्रकट किया। औरंगजेब, अकबर इत्यादि शासकों द्वारा ऐसे कई अनुदान अन्य धर्मों की संस्थाओं को
प्रदान किये गये। अकबर द्वारा खम्बात में ईसाइयों के द्वारा गिरजाघर के निर्माण के
समय जारी किया गया हुक्मनामा उसकी इस उदारता का परिचायक है। इसी प्रकार औरंगजेब
द्वारा एक योगी गुरु आनन्दनाथ को श्रद्धापूरित पत्र द्वारा भेंट और आर्थिक सहायता
भेजना भी उसकी उदारता का उदाहरण है।
प्रश्न 3: भारत में
सूफी मत के अभ्युदय और विकास तथा खानकाह और सिलसिलों के गठन का व्यापक वर्णन
कीजिए।
अथवा
11वीं शताब्दी के बाद से भारत में सूफी मत के विकास का वर्णन
कीजिए।
अथवा
"धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती
हुई विषयशक्ति की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सूफीवाद का विकास हुआ।" स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर:
भारत में सूफी मत का अभ्युदय एवं विकास- सूफीवाद या सूफी मत 19वीं सदी में अंग्रेजी में
मुद्रित एक शब्द है जिसका तसव्वुफ नामक शब्द से इस्लामी ग्रन्थों में उल्लेख किया
गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द सूफ यानी ऊन है। सूफी लोग ऊन से बने
वस्त्र धारण करते थे। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि यह शब्द 'सफा' से निकला है; 'सफा' का तात्पर्य सम्भवतः पैगम्बर साहब की मस्जिद के बाहर एक चबूतरे पर
अनुयायियों की सभा से है, जो धर्म के विषय में चर्चा
हेतु एकत्र होती थी।
कुछ आध्यात्मिक लोगों की रुचि रहस्यवाद और
वैराग्य की ओर विकसित हुई, इन रहस्यवादियों का अपना एक अलग अंदाज था, इन्हें सूफ़ी कहा गया। सूफ़ियों ने इस्लाम की पुरातन रूढ़ परम्पराओं तथा
कुरान और 'सुन्ना' (पैगम्बर के
व्यवहार) की धर्माचार्यों द्वारा की गयी बौद्धिक व्याख्याओं की आलोचना की।
सूफ़ियों ने साधना में लीन होकर अनुभवों के आधार पर कुरान की अपने अनुसार व्याख्या
की। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद साहब को इंसान ए कामिल' बताते
हुए ईश्वर-भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया।
खानकाह:
सूफीवाद ने 11वीं शताब्दी तक आते-आते एक
पूर्ण विकसित आन्दोलन का रूप ले लिया। सूफीवाद की कुरान से जुड़ी अपनी एक समृद्ध
साहित्यिक परम्परा थी। समाज को नयी दृष्टि तथा समाज की अव्यवस्था तथा अनैतिकता को
रोकने हेतु सूफियों ने 'खानकाह' (फारसी)
के नाम से अपने संगठित समुदाय का गठन किया।
इस समुदाय का नियन्त्रण पीर शेख अथवा मुर्शिद
द्वारा किया जाता था तथा ये लोग गुरु के रूप में जाने जाते थे। शिष्यों
(अनुयायियों) की भरती और नियन्त्रण का कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा संचालित किया
जाता था। अपने वारिस (खलीफा) का चुनाव भी स्वयं करते थे। ये लोग आध्यात्मिक नियमों
के नीति निर्धारण के साथ-साथ खानकाह के निवासियों के बीच एवं शेख तथा जनसाधारण के
बीच सम्बन्धों की सीमा भी तय करते थे।
सिलसिलों का गठन:
सिलसिले शब्द का अर्थ है; कड़ी या जंजीर
अथवा जंजीर की भाँति एक-दूसरे से जुड़ा हुआ। सूफी सिलसिलों का गठन लगभग 12वीं शताब्दी में प्रारम्भ हो चुका था। इस सूफी सिलसिले की पहली अटूट कड़ी
अल्लाह और पैगम्बर मोहम्मद साहब के बीच मानी जाती है तथा इसके पश्चात् शेख और
मुरीद आदि आते थे। इस सिलसिले या कड़ी के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद साहब की
आध्यात्मिक शक्ति शेख के माध्यम से मुरीदों तक पहुँचती थी। अनुयायियों को भरती
करते समय दीक्षा का विशेष अनुष्ठान किया जाता था। दीक्षा प्राप्त करने वाले
अनुयायी को निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और उसे सिर मुंडाकर थेगड़ी लगे वस्त्र
धारण करने पड़ते थे।
पीर की मृत्यु के पश्चात् उसकी दरगाह उसके
अनुयायियों के लिए तीर्थस्थल का रूप ले लेती थी। दरगाह का अर्थ है-दरबार, देश-विदेश से पीर के
अनुयायी पीर की दरगाह पर उनकी बरसी के अवसर पर जियारत के लिए आते थे। इस प्रकार
ज़ियारत पर अनुयायियों के मेले को 'उर्स' कहा जाता था।
उर्स का अर्थ है- पीर की आत्मा का परमपिता
की आत्मा से मिलना। सूफियों के अनुसार पीर अपनी मृत्यु के बाद ईश्वर की परमसत्ता
में विलीन हो जाते हैं। इस तरह जीवित अवस्था की अपेक्षा मृत्यु के बाद वे एक
प्रकार से सर्वव्यापी परमात्मा का रूप ले लेते हैं। इसी श्रद्धा के कारण लोग अपने
कष्टों के निवारण तथा कामनाओं की पूर्ति हेतु उर्स के मौके पर ज़ियारत के रूप में
उनकी दरगाह पर आशीर्वाद लेने हेतु जाते हैं। इस प्रकार शेख का वली के रूप में आदर
करने की प्रथा प्रारम्भ हुई।
प्रश्न 4. भारतीय उपमहाद्वीप
में चिश्ती सिलसिले की जीवन की गतिविधियों एवं चिश्ती उपासना के प्रमुख केन्द्रों
की व्याख्या कीजिए।
अथवा
आज भी भारत में चिश्ती सिलसिला सबसे अधिक प्रभावशाली है। चिश्ती
सूफी सन्तों के खानकाह जीवन व उपासना पद्धति के आधार पर उक्त कथन की प्रासंगिकता स्पष्ट
कीजिए।
अथवा
"12वीं शताब्दी के अन्त में चिश्तियों ने अपने को स्थानीय
परिवेश में अच्छी तरह ढाला और भारतीय भक्ति परम्परा की कई विशिष्टताओं को भी
अपनाया।" स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत आने वाले सूफी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय 12वीं सदी के अन्त में सबसे प्रभावशाली सम्प्रदाय था। कारण यह था कि चिश्ती
सम्प्रदाय ने भारतीय परम्परा को अपनाया तथा अपने आपको स्थानीय परिवेश के अनुकूल
परिवर्तित किया।
चिश्ती खानकाह में जीवन:
खानकाहें सामाजिक जीवन की गतिविधियों का केन्द्र होती थीं। शेख
निजामुद्दीन औलिया की चौदहवीं शताब्दी की खानकाह दिल्ली में यमुना किनारे बाहरी
सीमा पर गियासपुर में स्थित थी। खानकाह के दरवाजे संबके लिये खुले रहते थे। लोगों
की आवासीय व्यवस्था तथा उपासना हेतु खानकाह में कई छोटे-छोटे कमरे तथा एक बड़ा हॉल
था जिसे जमातखाना कहा जाता था। शेख निजामुद्दीन औलिया का परिवार और उनके अनुयायी
खानकाह के सहवासी थे। शेख निजामुद्दीन औलिया छत के ऊपर बने एक छोटे कमरे में रहते
थे, जहाँ वे अपने भक्तों से भेंट करते थे। खानकाह का
विस्तृत आँगन एक बरामदेनुमा गलियारे से घिरा हुआ था। मंगोल आक्रमण के समय गियासपुर
के लोगों ने खानकाह में शरण ली थी।
खानकाहं की लंगर व्यवस्था:
खानकाह में एक सामुदायिक रसोई (लंगर व्यवस्था) सभी लोगों के भोजन की
व्यवस्था हेतु बिन माँगी खैर (फुतूह) यानी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिये गये दान
के आधार पर चला करती थी। सुबह से लेकर शाम तक यहाँ सभी लोगों को भोजन प्राप्त होता
था। शेख से मिलने के लिये हर तबके के लोग, गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान
सभी आते थे तथा शेख बिना किसी भेदभाव के सबका स्वागत करते थे। यहाँ लोग अनुयायी
बनने, इबादत करने, आशीर्वाद
लेने, अपने दुःख-दर्दो को दूर करने हेतु शेख से
आशीर्वाद लेने आते थे। अमीर खुसरो, अमीर हसन सिजजी, जियाउद्दीन बरनी जैसे प्रसिद्ध लोगों ने शेख से अपनी मुलाकातों के बारे
में अपने संस्मरण लिखे हैं।
स्थानीय परम्पराएँ तथा आध्यात्मिक
उत्तराधिकारियों का चयन:
खानकाहों की गतिविधियों में स्थानीय परम्पराओं का समावेश दृष्टिगोचर
होता है। शेख के सामने सिजदा करना (झुककर प्रणाम करना), शिष्यों का सिरमुंडन, अभ्यागतों का आदर सत्कार, पानी पिलाना, यौगिक व्यायाम आदि इस बात के
प्रतीक थे कि स्थानीय परम्पराओं को अपनाने का प्रयास खानकाहों में शेख ने चिश्ती
धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु अनुयायियों से अपने वारिसों का चयन करके उन्हें भारतीय
उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में ख़ानकाहों की स्थापना हेतु भेजा। इन अनुयायियों
ने विभिन्न जगहों पर खानकाहें स्थापित की; जिससे शेख का
यश चारों दिशाओं में फैल गया और लोग अधिकाधिक संख्या में उनके आध्यात्मिक पूर्वजों
की दरगाह पर आने लगे।
चिश्ती उपासना के प्रमुख केन्द्र व उपदेशक:
चिश्ती उपासना के प्रमुख केन्द्र व उपदेशक निम्नलिखित थे
दरगाह
1.
अजमेर (राजस्थान)
2.
दिल्ली
3.
अजोधन (पाकिस्तान)
4.
दिल्ली
5.
दिल्ली
सूफी
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती
ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
शेख फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर
शेख निजामुद्दीन औलिया
शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहली
मृत्यु का वर्ष
1235 ई.
1235 ई.
1265 ई.
1325 ई.
1356 ई.
प्रश्न 5. 'सन्त कबीरदास जी' सन्त कवियों में अद्वितीय थे। कबीरदास जी की विशिष्टताओं का व्यापक वर्णन
कीजिए।
अथवा
"कबीर पहले और आज भी उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं
जो सत्य की खोज में रूढ़िवादी सामाजिक संस्थाओं और विचारों को प्रश्नवाचक दृष्टि
से देखते हैं।" स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
उत्तरी भारत की सन्त कवियों की परम्परा में सन्त कबीरदास जी (लगभग 14वीं-15वीं शताब्दी) अद्वितीय थे इतिहासकारों द्वारा
इनके जीवनकाल तथा इनकी विशिष्टताओं का चुनौतीपूर्ण अध्ययन उनके द्वारा रचित काव्य
तथा उनके अनुयायियों द्वारा लिखी गई जीवनियों के आधार पर किया गया है।
किया गया।
'कबीर बानी' के नाम से कबीर की तीन
विशिष्ट परिपाटियाँ संकलित की गई हैं।
(1) कबीर बीजक': उत्तर प्रदेश में वाराणसी
तथा अन्य कई स्थानों पर 'कबीर बीजक' में कबीर की वाणी संरक्षित की गई है।
(2) कबीर ग्रन्थावली': द्वितीय परिपाटी राजस्थान
के दादू पंथ से सम्बन्धित कबीर ग्रन्थावली के रूप में संरक्षित की गई है।
(3) आदि ग्रन्थ साहिब': आदि ग्रन्थ साहिब में
कबीरदास जी के कई पद संकलित किए गए हैं।
कबीरदास जी के निर्वाण के काफी समय के पश्चात् उनकी रचनाओं के संकलन
का कार्य उनके अनुयायियों द्वारा किया गया। कबीरदास जी के पद संग्रहों को 19वीं शताब्दी में बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र
जैसे प्रदेशों में मुद्रित और प्रकाशित किया गया।
विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं एवं बोलियों में कबीर
की रचनाएँ:
कबीर की रचनाओं में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का समावेश
है। कबीर ने अपने पदों में निर्गुण कवियों की संत भाषा का भी प्रयोग किया है। कबीर
की उलटबाँसियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं जिनमें बहुत-सी विरोधाभासी बातें हैं जो यह
प्रमाणित करती हैं कि परम सत्ता को समझना बहुत ही जटिल कार्य है। उलटबाँसी में
सामान्य प्रचलित अर्थों को उलट दिया गया है। उलटबाँसियाँ कबीर के रहस्यवादी
अनुभवों को प्रमाणित करती हैं; जैसे-"समंद लागि
आगि","केवल जो फूल्या फूल बिन" आदि
अभिव्यंजनाओं का प्रयोग।
एक परम सत्य के विभिन्न नाम:
कबीर ने परम सत्य को उद्घाटित करने हेतु अनेक परिपाटियों का प्रयोग
किया है। इस्लाम के दर्शन के अनुसार वे सत्य को अल्लाह, खुदा, हजरत, पीर आदि
कहते हैं। वेदान्त दर्शन के अनुसार वे सत्य को अलख (अदृश्य), निराकार, ब्रह्म और आत्मन भी कहते हैं। योगियों
की परम्परा से प्रभावित होकर वे सत्य को शब्द और शून्य जैसी अभिव्यक्तियों से भी
प्रकट करते हैं। .
कुछ कविताओं में हिन्दू धर्म के बहुदेववाद और मूर्ति-पूजा का भी
खण्डन किया गया है। जिक्र और इश्क के सूफी सिद्धान्तों के प्रयोग द्वारा जप (नाम
सिमरन) जप की हिन्दू परम्परा की अभिव्यक्ति भी कबीरदास जी के कुछ पदों में होती
है।
अत: कबीर की समृद्ध परम्परा इस बात की घोतक है
कि कबीर पहले और आज भी उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं जो सत्य की खोज में
रूढ़िवादी सामाजिक संस्थाओं और विचारों को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हैं।
प्रश्न 6. श्री गुरु नानकदेव
जी का जीवन परिचय देते हुए, सिख धर्म के विकास और खालसा
पंथ की स्थापना का वर्णन कीजिए।
अथवा
सिख मत के दर्शन की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
बाबा गुरु नानक की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्री गुरु नानकदेव जी भक्ति शाखा के प्रमुख सन्त थे जिनका जन्म
पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) के ननकाना गाँव में 1469 ई. में एक हिन्दू व्यापारी परिवार में हुआ था। गुरु नानक देव जी ने फारसी
भाषा का अध्ययन किया और लेखाकार के रूप में भी कार्य किया। अल्पायु में ही विवाहित
श्री नानकदेव जी की सूफी सन्तों में विशेष रुचि थी तथा उनका अधिकांश समय
सूफी-सन्तों की संगति में ही व्यतीत होता था। सच्चे ज्ञान की खोज तथा अपने
सन्देशों के प्रचार-प्रसार के लिये उन्होंने दूर-दूर तक यात्राएं की और लोगों को
एक ओंकार सत नाम' का सन्देश दिया।
श्री गुरु नानकदेव जी का सन्देश:
श्री
गुरु नानकदेव जी के भजनों और उपदेशों में निहित उनके सन्देशों से ज्ञात होता है कि
उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने सभी प्रकार के बाह्य आडम्बरों; जैसे- यज्ञ, मूर्ति-पूजा, कठोर तप तथा अन्य आनुष्ठानिक
कार्यों का विरोध किया।
उनके अनुसार परमात्मा (रब्ब) का कोई निश्चित
आकार या रूप नहीं है, उनके अनुसार परमात्मा का निरन्तर स्मरण या नाम जपना
उसकी (रब्ब) की उपासना का सबसे सरल मार्ग है। उन्होंने जाति-प्रथा और ऊँच-नीच के
भेदभाव को भी अस्वीकार कर दिया; उनके अनुसार मानव-मात्र
एक है, सब में उसी एक ओंकार सतनाम का रूप परिलक्षित है।
गुरु नानकदेव जी के विचारों को 'शबद' कहा जाता है जिन्हें वे अलग-अलग रागों में गाते थे और उनका शिष्य मरदाना
रबाब बजाकर उनका साथ देता था।
सिख धर्म का विकास:
गुरु नानकदेव जी ने अपने अनुयायियों को एक समुदाय के रूप में संगठित
किया तथा संगत (सामुदायिक उपासना) के नियम निर्धारित किए। संगत में सस्वर 'शबद' का सामूहिक पाठ किया जाता था। उन्होंने
अपने शिष्य अंगद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सम्भवतः ऐसा लगता है कि गुरु
नानकदेव जी किसी अलग धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे, लेकिन उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार के
अनुरूप संगठन को एक नया रूप दे दिया। यह संगठन 'सिख
धर्म' के रूप में विकसित हुआ।
गुरुबानी:
गुरुबानी' का संकलन सिखों के पाँचवें
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा, गुरुनानक देव, बाबा फरीद, संत रविदास जी और कबीर की बानियों
को आदि ग्रन्थ साहिब में समावेश करके किया गया। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह
जी ने नवें गुरु तेगबहादुर जी की रचनाओं का समावेश गुरुबानी में किया और इस ग्रन्थ
को 'गुरु ग्रन्थ साहिब' का
रूप प्रदान किया।
खालसा पंथ (पवित्रों की सेना):
सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में 'खालसा पंथ' नामक एक संगठित धार्मिक और सामाजिक
सैन्य बल उभरकर सामने आया, जो एक तात्कालिक आवश्यकता
थी। खालसा पंथ का अर्थ है- 'पवित्रों की सेना'। खालसा पंथ के अनुयायियों के लिए पाँच प्रतीकों को अपनाना अनिवार्य था, जो हैं बिना कटे केश, कृपाण, कच्छ, कंघा और लोहे का कड़ा।
इस प्रकार गुरु नानकदेव जी के प्रयासों ने
सिखों अर्थात् अनुयायियों को एकता के संगठित सूत्र में बाँधा।

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