Class-12 History
Chapter- 2 (राजा, किसान और नगर : आरंभिक
राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. अशोक के अभिलेखों को सर्वप्रथम किसने पढ़ा? ।
उत्तर: 1838 ई. में सर्वप्रथम ब्रिटिश अधिकारी
जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के अभिलेखों को पढ़ा।
प्रश्न 2. सम्राट अशोक के अधिकांश अभिलेख किस भाषा में हैं?
उत्तर: सम्राट अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं।
प्रश्न 3. जैन और बौद्ध धर्म के आरंभिक ग्रन्थों में कितने महाजनपदों का उल्लेख
मिलता है ?
उत्तर: जैन और बौद्ध धर्म के आरंभिक ग्रन्थों में सोलह महाजनपदों का
उल्लेख मिलता है।
प्रश्न 4. पाँच प्रमुख महाजनपदों के नाम लिखिए।
उत्तर:
1.
कुरु
2.
वज्जि
3.
मगध
4.
कोशल
5.
अवन्ति।
प्रश्न 6. चौथी बी.सी.ई. सदी में मगध की राजधानी को कहाँ स्थानांतरित किया गया था?
उत्तर: पाटलिपुत्र।
प्रश्न 7. 'राजाओं का घर' किसे कहा जाता था ?
उत्तर: मगध साम्राज्य की प्रथम राजधानी राजगृह (राजगीर) को राजाओं
का घर कहा जाता था।
प्रश्न 8. मौर्य साम्राज्य का संस्थापक कौन था ?
अथवा
मौर्य साम्राज्य के संस्थापक कौन थे?
अथवा
मौर्य साम्राज्य की स्थापना किसने की थी?
उत्तर: चन्द्रगुप्त मौर्य।
प्रश्न 9. कलिंग पर विजय प्राप्त करने वाला मौर्य सम्राट कौन था ?
उत्तर: कलिंग पर विजय प्राप्त करने वाला मौर्य सम्राट अशोक था।
प्रश्न 10. अर्थशास्त्र का रचयिता कौन था ?
अथवा
मौर्यकाल के दौरान अर्थशास्त्र पुस्तक का लेखक कौन था?
उत्तर:
अर्थशास्त्र का रचयिता चाणक्य या कौटिल्य था ।
प्रश्न 11. मौर्य साम्राज्य के किन्हीं पाँच महत्वपूर्ण राजनीतिक केन्द्रों के नाम
लिखिए।
उत्तर:
1.
पाटलिपुत्र
2.
उज्जयिनी
3.
तक्षशिला
4.
सुवर्णगिरि
5.
होयसल।
प्रश्न 12. धम्म क्या है ?
उत्तर: मौर्य सम्राट अशोक ने अपनी जनता के नैतिक उत्थान के लिए जिन
आचारों की संहिता प्रस्तुत की उसे धम्म कहा जाता है।
प्रश्न 13. नीचे दी गई जानकारी को पढ़िए और अशोक द्वारा तीसरी सदी में तैयार और फैलाए
गए संदेशों के संदर्भ से इसे जोडिए "सिद्धान्त साधारण और सार्वभौमिक थे।
सिद्धान्तों ने लोगों के जीवन को अच्छा बने रहने के लिए सुनिश्चित किया। अशोक ने
इन सिद्धान्तों के साथ अपने साम्राज्य को अखण्ड बनाए रखने का प्रयास किया।"
उत्तर: धम्म।
प्रश्न 14. अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए किस नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति
की?
उत्तर: अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्य नाम से विशेष
अधिकारियों की नियुक्ति की।
प्रश्न 15. सिल्लपादिकारम् क्या है ?
उत्तर: सिल्लपादिकारम् प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य है।
प्रश्न 16. किस वंश के शासक अपने नाम के आगे देवपुत्र की उपाधि लगाते थे ?
उत्तर: कुषाण वंश के शासक अपने नाम के आगे देवपुत्र की उपाधि लगाते
थे ।
प्रश्न 17. नीचे दिए गए चित्र को ध्यान से देखिए। इस चित्र से संबंधित चौथी सदी सी.ई.
की मूर्ति को पहचानिए और उसका नाम लिखिए।
उत्तर: कुषाण शासक की बलुआ पत्थर से बनी मूर्ति।
प्रश्न 18. प्रयाग प्रशस्ति क्या है?
उत्तर: प्रयाग प्रशस्ति हरिषेण द्वारा लिखी गयी थी, जो समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की
दिग्विजयों का विवरण है।
प्रश्न 19. किस शासक को भारत का नेपोलियन कहा जाता है?
उत्तर: समुद्रगुप्त को।
प्रश्न 20. प्रशस्ति और शिलालेख में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: प्रशस्ति प्रायः कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी.की
प्रशंसा में लिखी जाती थी, जबकि शिलालेख में उन्हें बनवाने
वाले लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते
थे।
प्रश्न 21. जातक कथाएँ अथवा जातक कहानी क्या हैं ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियों का संकलन जातक कथाओं के
नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 22. किस जातक कथा से पता चलता है कि राजा और प्रजा (विशेषकर ग्रामीण प्रजा) के
बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण ना जाता है। होते थे?
उत्तर: गंदतिन्दु जातक कथा से पता चलता है कि राजा और प्रजा
(विशेषकर ग्रामीण प्रजा) के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण होते थे।
प्रश्न 23. सुदर्शन झील का निर्माण किसने करवाया था ? किस शक
राजा ने इसकी मरम्मत करवाई ?
अथवा
किस शक शासक ने सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया?
उत्तर: सुदर्शन झील का निर्माण मौर्यकाल में एक स्थानीय राज्यपाल
द्वारा करवाया गया था। शक राजा रुद्रदामन ने इसकी मरम्मत करवाई थी।
प्रश्न 24. आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ कौन-सा है ?
उत्तर- आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ संस्कृत
भाषा में लिखित 'मनुस्मृति' है। .
प्रश्न 25. गुप्त वंश की किस शासिका ने भूमि दान की थी ?
उत्तर: गुप्त वंश की शासिका प्रभावती गुप्त ने भूमि दान की थी।
प्रश्न 26. 'हर्षचरित' के रचयिता कौन थे?
उत्तर: हर्षचरित के रचयिता बाणभट्ट थे।
प्रश्न 27. पाटलिपुत्र का विकास किस गाँव से हुआ था?
उत्तर- पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नामक गाँव से हुआ
था।
प्रश्न 28. चीनी यात्री ह्वेन त्सांग पाटलिपुत्र कब आया था?
उत्तर: चीनी यात्री ह्वेन त्सांग सातवीं सदी ई. में पाटलिपुत्र आया
था।
प्रश्न 29. पेरिप्लस ऑफ द एरीथियन सी की रचना किसने की थी?
उत्तर: एक यूनानी समुद्री यात्री ने पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी की
रचना की ।
प्रश्न 30. आहत सिक्के किन्हें कहा जाता है?
उत्तर: छठी शताब्दी ईसा पूर्व में चाँदी और ताँबे के बने सिक्कों को
आहत सिक्के कहा जाता है।
प्रश्न 31. शासकों की प्रतिमा और नाम के सिक्के सर्वप्रथम किस राजवंश के राजाओं ने
जारी किये थे ?
उत्तर: हिन्द-यूनानी शासकों ने।
प्रश्न 32. कुषाण और गुप्त शासकों द्वारा जारी किए गए सोने के सिक्कों में एक अंतर
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: कुषाण शासकों द्वारा जारी किए गए सोने के सिक्के वजन और आकार
में तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के
एकदम बराबर था, जबकि गुप्त शासकों द्वारा जारी किए गए सोने
के सिक्के उच्च कोटि के थे।
प्रश्न 33. भारत में सोने के सिक्के सबसे पहले कब और किस वंश के राजाओं ने जारी किए
थे?
उत्तर: भारत में सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ईसवी में
कुषाण शासकों ने जारी किए थे।
प्रश्न 34. मुद्राशास्त्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर: मुद्राशास्त्र से अभिप्राय सिक्कों के अध्ययन से है जिसमें
सिक्कों पर मिलने वाले चित्रों, लिपि एवं सिक्कों की धातुओं
का भी अध्ययन सम्मिलित है।
प्रश्न 35. सामान्यत अशोक को अभिलेखों में किस नाम से सम्बोधित किया गया है ?
उत्तर:
सामान्यत अशोक को अभिलेखों में 'देवानांपिय'
(देवताओं का प्रिय) और 'पियदस्सी' (देखने में सुन्दर) नाम से सम्बोधित किया गया है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (SA1)
प्रश्न 1. जेम्स प्रिंसेप कौन था? उसके कार्यों को संक्षेप में
बताइए।
उत्तर: जेम्स प्रिंसेप ईस्ट इंडिया कम्पनी में एक अधिकारी था जिसने 1838
ई. में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की।
इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों एवं सिक्कों में किया गया था जो सम्राट
अशोक के थे।
प्रश्न 2. महाजनपद क्या थे? कुछ महत्वपूर्ण महाजनपदों के नाम
बताइए।
उत्तर: छठी शताब्दी ई. पू. में उत्तरी भारत में कुछ बड़े-बड़े राज्य
स्थापित हो गए थे जिन्हें महाजनपद कहा जाता था। बौद्ध एवं जैन धर्म के आरंभिक
ग्रन्थों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का उल्लेख मिलता है
जिनमें महत्वपूर्ण महाजनपद मगध, कोशल, वज्जि,
कुरु, अवंति, पांचाल,
गांधार आदि थे।
प्रश्न 3. आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. को एक महत्वपूर्ण परिवर्तन
काल क्यों माना जाता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. को एक
महत्वपूर्ण परिवर्तन काल माना जाता है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1.
इस काल को
प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग एवं सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा
जाता है।
2.
इसी काल में
बौद्ध एवं जैन धर्म तथा विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
3.
इसी काल में
भारत में 16 महाजनपदों
का उदय हुआ।
4.
इसी काल में
ब्राह्मणों ने संस्कृत में धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की। .
प्रश्न 4. प्राचीन शहर राजगृह के बारे में संक्षेप में बताइए।
उत्तर: राजगृह (राजगीर) मगध राज्य में एक महत्वपूर्ण राजधानी नगर
था। वर्तमान में यह बिहार राज्य में स्थित है; पहाड़ियों के
मध्य बसा राजगृह एक किलेबंद शहर था। जब तक पाटलिपुत्र मगध की नई राजधानी बनी तब तक
राजगृह ही पूर्वी भारत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र
रहा।
प्रश्न 5. मौर्य साम्राज्य का उदय कब एवं किसके द्वारा हुआ ?
उत्तर: मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य
साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग 321 ई. पू.)
का साम्राज्य पश्चिमोत्तर भारत में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला हुआ था।
उसके पौत्र अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की थी। अशोक आरंभिक भारत का सबसे
प्रसिद्ध शासक माना जाता है।
प्रश्न 6. चाणक्य के अर्थशास्त्र' की मुख्य विषय-वस्तु क्या है?
उत्तर: चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' की मुख्य विषय-वस्तु राजनीति और लोक प्रशासन है। इसमें मौर्य साम्राज्य के
सैनिक तथा प्रशासनिक संगठन के विषय में विस्तृत विवरण मिलते हैं।
प्रश्न 7. मौर्य साम्राज्य के कोई दो प्रमुख राजनीतिक केन्द्रों के नाम बताइए।
उत्तर:
1.
पाटलिपुत्र
तथा
2.
तक्षशिला।
प्रश्न 8. सबसे प्राचीन अभिलेख किस शासक के हैं? इनसे उसके
धर्म के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
अथवा
अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त बताइए।
अथवा
अशोक के 'धम्म' के
सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य सम्राट अशोक के हैं जिनके माध्यम
से अशोक ने अपने धर्म का प्रचार किया, जिसके प्रमुख
सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
1.
बड़ों का
आदर करना,
2.
संन्यासियों
एवं ब्राह्मणों के प्रति उदारता रखना,
3.
अपने सेवकों
एवं दासों के प्रति उदार व्यवहार करना,
4.
दूसरों के
धर्मों एवं परम्पराओं का आदर करना।
प्रश्न 9. अशोक के अभिलेख किन-किन भाषाओं एवं लिपियों में लिखे जाते थे ? उनके नियम क्या थे?
उत्तर:
अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में लिखे गए
थे, जबकि पश्चिमोत्तर से मिले अभिलेख अरामेइक एवं यूनानी
भाषा में हैं जिनमें से कुछ की लिपि खरोष्ठी है। इन अभिलेखों में अशोक का
जीवनवृत्त, उसकी आंतरिक एवं बाहरी नीति तथा उसके राज्य के
विस्तार सम्बन्धी जानकारी दी गयी है।
प्रश्न 10. बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने सम्राट अशोक को प्रेरणा का स्रोत
क्यों माना ?
अथवा
प्रारंभिक भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य को एक प्रमुख काल
क्यों माना गया था?
उत्तर: उन्नीसवीं व आरंभिक बीसवीं सदी के भारतीय इतिहासकारों को
मौर्य साम्राज्य की संभावना बहुत चुनौतीपूर्ण एवं उत्साहवर्धक लगी। साथ ही प्रस्तर
मूर्तियों सहित मौर्यकालीन सभी पुरातत्व एक अद्वितीय कला के प्रमाण थे जिन्हें
साम्राज्य की पहचान माना जाता था। अशोक अन्य राजाओं की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली एवं
परिश्रमी था तथा उसके अपने आदर्श थे। वह अन्य राजाओं की अपेक्षा बहुत ही विनीत था
जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ लगाते थे। अशोक के इन्हीं गुणों के कारण ही
बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी नेताओं ने उसे प्रेरणा का स्रोत माना।
प्रश्न 11. प्रयाग प्रशस्ति के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर: प्रयाग प्रशस्ति को इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख के नाम से
भी जाना जाता है जिसके रचयिता हरिषेण थे। संस्कृत में लिखित प्रयाग प्रशस्ति में
समुद्रगुप्त के जीवन एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रशस्ति से हमें
समुद्रगुप्त के जीवन, विजय, व्यक्तिगत
गुणों, तत्कालीन राजनीतिक दशा आदि की जानकारी मिलती है।
प्रश्न 12. जातक ग्रंथों की मुख्य विषय-वस्तु क्या है?
उत्तर: जातक कथाएँ पहली सहस्राब्दि ई. के मध्य में पालि भाषा में
लिखी गई थीं जो भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों की अति लोकप्रिय कहानियाँ हैं। इनकी
मुख्य विषय-वस्तु रचनाकालीन भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति है।
प्रश्न 13. मनुस्मृति के अनुसार सीमा सम्बन्धी विवादों के समाधान के लिए राजा को क्या
सलाह दी गयी है?
अथवा
मनुस्मृति क्या है ? इसमें राजा को क्या
सलाह दी गयी है ?
उत्तर:
मनुस्मृति आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है । संस्कृत
भाषा में लिखित इस ग्रन्थ की रचना 200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य हुई थी। इस ग्रन्थ में राजा को यह सलाह दी गयी है कि भूमि
सम्बन्धी विवादों से बचने के लिए सीमाओं की गुप्त पहचान बनाकर रखनी चाहिए। इसके
लिए सीमाओं पर भूमि में ऐसी वस्तु दबाकर रखनी चाहिए जो समय के साथ नष्ट न हो।
प्रश्न 14. छठी शताब्दी ई. पू. से कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रयोग किए गए तरीकों
को बताइए।
उत्तर:
1.
कृषि
उत्पादन में वृद्धि हेतु गंगा और कावेरी नदियों की घाटियों के उर्वर क्षेत्रों में
हल का प्रयोग किया गया।
2.
अत्यधिक
वर्षा वाले क्षेत्रों में उर्वर भूमि की जुताई लोहे के फाल वाले हलों से की जाती
थी।
3.
उत्पादन
बढ़ाने के लिए कुओं, तालाबों एवं कहीं-कहीं नहरों से भी सिंचाई की जाती थी।
प्रश्न 15. भारतीय उपमहाद्वीप में छठी शताब्दी ई. पू. में उदय होने वाले नगरों की
विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में छठी शताब्दी ई. पू. में उदय होने वाले नगरों
की विशेषताएँ अग्रलिखित थी
1.
अधिकांश नगर
महाजनपदों की राजधानियाँ थे।
2.
प्रायः सभी
नगर संचार मार्गों के किनारे बसे हुए थे।
3.
मथुरा जैसे
अनेक नगर व्यावसायिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक गतिविधियों के जीवंत केन्द्र थे।
प्रश्न 16. प्राचीनकाल के ग्रामीण समाज को समझने में भूमि अनुदान सम्बन्धी अभिलेख
कैसे सहयक होते हैं?
उत्तर:
1.
भूमि अनुदान
सम्बन्धी अभिलेखों से राज्य तथा किसानों के मध्य सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।
2.
कुछ लोग ऐसे
भी थे जिन पर अधिकारियों या सामन्तों का नियंत्रण नहीं था जिनमें पशुपालक, संग्राहक, शिकारी, मछुआरे, शिल्पकार
एवं जगह-जगह घूमकर खेती करने वाले लोग सम्मिलित थे।
प्रश्न 17. राजा भूमि दान क्यों देते थे? इस बारे में
इतिहासकारों के क्या मत हैं?
उत्तर:
1.
कुछ
इतिहासकारों का मत है कि भूमि दान शासक वंश द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में
प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी।
2.
कुछ
इतिहासकारों का मत है कि जब किसी शासक का अपने सामंतों पर नियंत्रण ढीला पड़ जाता
था तो वह भूमि दान के माध्यम से अपने समर्थक जुटाते थे।
3.
ऐसा भी माना
जाता है कुछ राजा भूमि दान कर स्वयं को उत्कृष्ट स्तर के मानव के रूप में
प्रदर्शित करना चाहते थे।
प्रश्न 18. उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र क्या हैं?
उत्तर:
हड़प्पा शहरों को छोड़कर कुछ किलेबंद शहरों से विभिन्न प्रकार के
पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे एवं थालियाँ
सम्मिलित हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हीं पात्रों को उत्तरी कृष्ण मार्जित
पात्र कहा जाता है जिनका प्रयोग सम्भवतः धनवान लोग करते थे।
प्रश्न 19. दानात्मक अभिलेख क्या हैं? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
दानात्मक अभिलेख दूसरी शताब्दी ई. के छोटे-छोटे अभिलेख हैं जो
विभिन्न शहरों से प्राप्त हुए हैं जिनमें दान देने वाले के नाम के साथ-साथ उसके
व्यवसाय का भी उल्लेख मिलता है। इनमें नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, श्रमिक, बढ़ई, स्वर्णकार, कुम्हार, लोहार,
धार्मिक गुरु, राजाओं आदि के बारे में विवरण
प्राप्त होते हैं।
प्रश्न 20. आहत सिक्कों के बारे में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
आहत सिक्के 600 ई. पू. में राजाओं द्वारा जारी
किए थे जो ताँबे व चाँदी के बने होते थे। इन सिक्कों पर प्रतीकों को आहत करके
बनाया जाता था। यह माना जाता है कि व्यापारियों, नागरिकों
एवं धनपतियों ने भी इस प्रकार के सिक्के जारी किए।
प्रश्न 21. सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर सर्वप्रथम कब व किन शासकों ने जारी किए?
उत्तर:
सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर सर्वप्रथम प्रथम शताब्दी में कुषाण
शासकों ने जारी किए थे जिनका आकार और भार तत्कालीन रोमन शासकों एवं ईरान के
पार्थियन शासकों द्वारा जारी किए गए सिक्कों के बिल्कुल समान था। बाद में गुप्त
शासकों ने भी सोने के सिक्के चलाए।
प्रश्न 22. आप कैसे कह सकते हैं कि यूनानी आक्रमण ने मुद्रा (सिक्के) के क्षेत्र को
प्रभावित किया?
उत्तर:
यूनानी आक्रमण ने भारत में मुद्रा (सिक्के) के क्षेत्र पर
महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। उन्होंने सोने के ऐसे सिक्के चलाए जिन पर राजा का नाम,
उपाधि और तिथि अंकित होती थी, जबकि पूर्व में
प्रचलित चाँदी के सिक्कों पर ऐसा कोई वर्णन नहीं होता था। इसके अतिरिक्त यूनानियों
द्वारा प्रचलित सिक्के निर्माण कला की उत्कृष्टता के कारण भी श्रेष्ठ थे।
प्रश्न 23. सम्राट अशोक द्वारा धारण की गई दो उपाधियाँ बताइए।
उत्तर:
1.
देवानांपिय
(देवताओं का प्रिय) तथा
2.
पियदस्सी
(देखने में सुन्दर)।
लघु उत्तरीय प्रश्न (SA2)
प्रश्न 1. "सिन्धु घाटी सभ्यता के पश्चात् लगभग 1500 वर्षों के
दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार के विकास हुए।"
कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सिन्धु घाटी सभ्यता के पश्चात् लगभग 1500 वर्षों
के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अग्रलिखित प्रकार के विकास हुए
1.
इस काल में
सिंधु नदी एवं उसकी सहायक नदियों के किनारे निवास करने वाले लोगों द्वारा ऋग्वेद
का लेखन किया गया।
2.
उत्तर भारत, दक्कन के
पठारी क्षेत्र, कर्नाटक आदि
कई क्षेत्रों में कृषक बस्तियों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त दक्कन के पठारी क्षेत्र
एवं दक्षिण भारत से चरवाहा बस्तियों के साक्ष्य भी मिलते हैं।
3.
ईसा पूर्व
प्रथम सहस्राब्दि के दौरान मध्य एवं दक्षिण भारत में मृतकों के अन्तिम संस्कार के
नवीन तरीकों को अपनाया गया। महापाषाण नामक पत्थरों के बड़े-बड़े ढाँचे प्राप्त हुए
हैं। कई स्थानों पर शवों के साथ लोहे से निर्मित विभिन्न प्रकार के उपकरणों एवं
हथियारों को भी दफनाया गया था।
प्रश्न 2. "भारतीय उपमहाद्वीप में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से नए परिवर्तनों के प्रमाण
मिलते हैं।" कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में निम्नलिखित नए
परिवर्तन हुए
1.
भारतीय
उपमहाद्वीप में आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों एवं रजवाड़ों का तीव्र गति से विकास हुआ। इन
राजनीतिक प्रक्रियाओं के लिए कुछ अन्य परिवर्तन भी जिम्मेदार थे जिसके बारे में
जानकारी कृषि उपज को संगठित करने के तरीकों से मिलती है।
2.
इस काल में लगभग
सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में नए नगरों का उद्भव एवं विकास हुआ। इतिहासकार इस
प्रकार के विकास का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार के अभिलेखों, ग्रन्थों, सिक्कों एवं
चित्रों जैसे विभिन्न प्रकार के स्रोतों का अध्ययन करते हैं।
प्रश्न 3. जेम्स प्रिंसेप कौन था ? उसके शोध कार्य ने भारत के
राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को किस प्रकार नयी दिशा प्रदान की ?
उत्तर:
जेम्स प्रिंसेप ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक अधिकारी था जिसने 1830
के दशक में प्राचीन शिलालेखों तथा सिक्कों में प्रयोग की गयी
ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। अध्ययन से प्रिंसेप
को ज्ञात हुआ कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर एक राजा पियदस्सी (मनोहर मुखाकृति
वाला)का वर्णन है। प्रिंसेप को कुछ ऐसे भी शिलालेख प्राप्त हुए जिसमें सम्राट अशोक
का वर्णन था।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अशोक मौर्य वंश के सर्वाधिक
लोकप्रिय शासकों में से एक था। इस शोध कार्य से प्रारंभिक भारत के राजनैतिक इतिहास
के अध्ययन को एक नई दिशा मिली क्योंकि भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय
उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए
विभिन्न भाषाओं के अभिलेखों और ग्रन्थों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं
शताब्दी के आरंभ तक भारत के इतिहास की राजनीतिक रूपरेखा स्पष्ट होकर हमारे समक्ष
आयी।
प्रश्न 4. अभिलेख क्या हैं ? इतिहास के अध्ययन में अभिलेख किस
प्रकार सहायक होते हैं ?
उत्तर:
अभिलेख पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी
कठोर सतह पर उत्कीर्ण लेख को कहते हैं। अभिलेखों में उन लोगों का वर्णन होता है जो
इनका निर्माण करवाते हैं। अभिलेख एक प्रकार का स्थायी प्रमाण होते हैं जिनका
इतिहास के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान होता है। सम्राट अशोक के अभिलेखों से हमें
सम्राट के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रयाग प्रशस्ति स्तम्भ अभिलेख से समुद्रगुप्त के काल
की घटनाओं का ज्ञान होता है। जूनागढ़ शिलालेख से राजा रुद्रदामन द्वारा सुदर्शन
झील के निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है। अधिकतर अभिलेखों में ब्राह्मी और
खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया है तथा कई अभिलेखों पर इसके निर्माण की तिथि भी
अंकित है। सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक लगभग एक लाख अभिलेख प्राप्त हो
चुके हैं।
प्रश्न 5. महाजनपदों का उद्भव कैसे हुआ ? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
मध्य गंगा घाटी में 1000 ई. पू. के मध्य
प्रथमतः लोहे के साक्ष्य प्राप्त होना प्रारम्भ हो जाते हैं। इस काल में लोहे के
प्रयोग के परिणामस्वरूप उन्नत कृषि के औजार तथा हलों का प्रयोग आरंभ हुआ जिससे
विस्तृत मात्रा में उपज होनी आरंभ हो गयी। अधिक उपज ने कृषि अधिशेष की स्थिति
उत्पन्न की। कृषि में इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप न केवल स्थायी जीवन को बढ़ावा
मिला अपितु राज्य को अधिक राजस्व की भी प्राप्ति हुई।
अधिक राजस्व की प्राप्ति के कारण राज्य के लिए स्थायी सेना
रखना सुगम हो गया जिसके माध्यम से राजाओं ने अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था
स्थापित की, साथ ही साथ अपने समीपवर्ती
क्षेत्रों को विजित करके अपने क्षेत्र तथा राज्य को विस्तृत बनाया। अन्ततोगत्वा
यही विस्तृत क्षेत्र सोलह महाजनपदों के रूप में स्थापित हुए।
प्रश्न 6. महाजनपदों की कोई-सी चार विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
महाजनपदों की किन्हीं तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
महाजनपदों की चार विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
1.
अधिकतर
महाजनपदों पर राजा का शासन था।
2.
'गण' व 'संघ' के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में अनेक लोगों के समूह का शासन
था और इसका प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता
3.
प्रत्येक
महाजनपद की प्रायः किले से घिरी एक राजधानी थी।
4.
शासक
किसानों, व्यापारियों
तथा शिल्पकारों से कर तथा भेंट की वसूली करते थे।
प्रश्न 7. मगध सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद कैसे बना? स्पष्ट
कीजिए।
अथवा
सबसे शक्तिशाली जनपद के रूप में मगध की व्याख्या कीजिए।
अथवा
मगध छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. के मध्य सबसे शक्तिशाली जनपद
कैसे बना? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई. पू. तक उत्तर तथा मध्य भारतीय क्षेत्र में सोलह
महाजनपदों का उद्भव हो चुका था जिनमें मगध सबसे अधिक शक्तिशाली था। मगध के सबसे
अधिक शक्तिशाली महाजनपद बनने के प्रमुख कारणों का विवरण इस प्रकार है
1.
मगध तीन ओर
से सुरक्षित पहाड़ियों से घिरा हुआ था।
2.
मगध के मध्य
से जीवनदायिनी गंगा तथा सोन नदी बहती थीं।
3.
मगध की
सीमाओं में प्रचुर मात्रा में खनिज सम्पदा विशेषकर लोहे की खानें थीं।
4.
मगध महाजनपद
को शक्तिशाली तथा महत्वाकांक्षी राजाओं की प्राप्ति हुई।
5.
मगध शासकों
ने अपनी कूटनीति तथा वैवाहिक सम्बन्धों से मगध को शक्तिशाली बनाया। इस प्रकार मगध
महाजनपद को एक नहीं अपितु अनेक लाभदायक स्थितियाँ प्राप्त थीं जिसके कारण मगध
महाजनपद ही शक्तिशाली महाजनपद बना।
प्रश्न 8. सोलह महाजनपद कौन से थे ? इनका अस्तित्व कितने
वर्षों तक रहा ?
उत्तर:
प्राचीन भारत के इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. का काल अति
महत्वपूर्ण रहा है जिसमें बौद्ध तथा जैन धर्म का विकास हुआ। बौद्ध तथा जैन धर्म के
ग्रन्थों में इन सोलह महाजनपदों का विवरण दिया गया है। यद्यपि इन ग्रन्थों में
महाजनपदों के नाम आपस में नहीं मिलते, परन्तु कुछ नाम ऐसे
हैं जिनका विवरण बार-बार आता है, जैसे-अवंति, वत्स, कोसल, मगध, कुरु, पांचाल, गांधार आदि। ये
महाजनपद अन्यों से अधिक समर्थ तथा शक्तिशाली थे तथा गंगा-यमुना की घाटियों में
स्थित थे।
अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था। कई महाजनपद गण
और संघ के नाम से प्रसिद्ध थे जिनमें समूह का शासन होता था। महात्मा बुद्ध और
महावीर का सम्बन्ध ऐसे ही गणराज्यों से था। प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती
थी और इसे किले से घेरा जाता था। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि कुछ महाजनपदों का
अस्तित्व लगभग 1000 वर्ष तक रहा।
प्रश्न 9. अशोक के धम्म के विषय में आप क्या जानते हैं ? सरल
शब्दों में विवरण दीजिए।
अथवा
"अशोक ने धम्म के प्रतिपादन हेतु व्यावहारिक उपाय
किए।" कथन को समझाइए।
उत्तर:
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक का हृदय
परिवर्तित हो गया तथा उसने घोषणा की कि वह रणभेरी घोष (युद्ध की घोषणा) के स्थान
पर धम्म घोष का पालन करेगा साथ ही इसका प्रचार-प्रसार भी करेगा। अतः अशोक ने अपनी
इस घोषणा के अनुरूप सभी धर्मों का सरल स्वरूप स्थापित किया जो धम्म कहलाया।
अशोक का यह धर्म मूलतः नैतिक नियम ही है जो उसने अपनी प्रजा
में प्रसारित किए जिनमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों एवं ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवक व
दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे धर्मों और परम्पराओं का आदर सम्मिलित है।
अशोक ने अपने धम्म को प्रसारित करने के लिए न सिर्फ एक बौद्ध संगीति बुलवाई अपितु
विदेशों में अपने धर्म प्रचारक (धम्म महामात्य) भी भेजे। संक्षेप में कहा जाए तो
अशोक का धम्म सभी धर्मों का सार, सरल तथा मानवतावादी स्वरूप
लिए था।
प्रश्न 10. मौर्य वंश के इतिहास के स्रोतों पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के इतिहास की पुनर्रचना के लिए इतिहासकारों
द्वारा प्रयुक्त किए गए स्रोतों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना के लिए विभिन्न
प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया है। इन स्रोतों में मूर्तिकला जैसे पुरातात्विक
प्रमाण भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त समकालीन रचनाएँ भी मौर्यकालीन इतिहास के
पुनर्निर्माण में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई हैं, जैसे
चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार के आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया वर्णन
तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री कौटिल्य या चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र ।
साथ ही परवर्ती जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रन्थों तथा संस्कृत वाङ्मय द्वारा भी मौर्य शासकों के
इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्रोत, जो मौर्य वंश के इतिहास की विशद् जानकारी देते हैं, सम्राट
अशोक द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए अभिलेख हैं।
प्रश्न 11. मौर्य साम्राज्य की स्थापना किसने की ? भारतीय
इतिहास में मौर्य साम्राज्य की स्थापना का महत्व लिखिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 321 ई. पू. में की थी:
मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में छोटे-छोटे राज्य
समाप्त हो गए और उनके स्थान पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई। मौर्य
साम्राज्य की स्थापना के पूर्व छोटे-छोटे राज्यों का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं था।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना के उपरान्त भारतीय इतिहास का एक क्रमबद्ध आधार बना।
मौर्य साम्राज्य में विदेशी व्यापार ने खूब उन्नति की, भारत
का विदेशों से व्यापक सम्पर्क स्थापित हुआ, इसके साथ-साथ
भारत से विदेशी सत्ता का अन्त हुआ।
प्रश्न 12. यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य की सैन्य
व्यवस्था पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सैन्य व्यवस्था का
विधिवत् वर्णन किया है। मेगस्थनीज के अनुसार सैन्य व्यवस्था के समुचित संचालन हेतु
एक समिति और छह उपसमितियों का गठन किया गया था। इन समितियों को पृथक-पृथक सैन्य
गतिविधियों के संचालन का दायित्व सौंपा गया था; जैसे- एक
समिति नौसैनिक गतिविधियों का, दूसरी समिति यातायात एवं
सैनिकों की भोजन व्यवस्था का, तीसरी समिति पैदल सैनिकों का,
चौथी समिति अश्वारोहियों की सेना का, पाँचवीं
समिति रथारोहियों की सेना, तथा छठी समिति हाथियों की सेना का
संचालन करती थी।
दूसरी समिति के दायित्व अन्य सभी समितियों के हितों की
व्यवस्था हेतु थे; जैसे-अस्त्रों के परिवहन की
व्यवस्था, सैनिकों के भोजन तथा चिकित्सकीय सुविधा आदि का
प्रबन्ध, जानवरों के लिए चारे आदि का प्रबन्ध, सैनिकों की सेवा हेतु सेवकों की व्यवस्था आदि।
प्रश्न 13. मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्षों तक ही चल सका,
क्यों ?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्षों तक ही चल
सका। इसके पतन के प्रमुख कारण निम्न थे
1.
मौर्य
साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया।
2.
इस
साम्राज्य की सीमा के अन्तर्गत भी नियन्त्रण एकसमान नहीं था।
3.
कलिंग विजय
के बाद अशोक द्वारा अहिंसा का मार्ग अपनाना।।
4.
दूसरी
शताब्दी ई. पू. आते-आते उपमहाद्वीप के कई भागों में नए-नए शासक तथा रजवाड़ों का
स्थापित होना।
प्रश्न 14. दक्षिण के राजा और सरदारों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप के दक्कन (विशेष रूप से गोदावरी का प्रदेश और
कृष्णा नदी के बीच का क्षेत्र), आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु
और केरल के कुछ भाग जिसे संयुक्त रूप से तमिल का प्रदेश कहा जाता है में चोल,
चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ जो बहुत ही समृद्ध थे।
इनमें सातवाहन और शक शासकं प्रमुख थे जिन्होंने लगभग दो शताब्दियों तक राज्य किया
तथा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा अपनी आर्थिक स्थिति काफी सुदृढ़ की। इनके
सामाजिक उद्गम के बारे में विशेष जानकारी नहीं है।
सातवाहन वंश के शासक वैष्णव मत के अनुयायी थे और अपने आपको
ब्राह्मण कहते थे। सातवाहन वंश के सबसे शक्तिशाली राजाओं में शातकर्णी राजा, किसान और नगर (आरंभिक राज्य और
अर्थव्यवस्थाएँ) 697 प्रथम था जिसने पूरे दक्कन पर अपने प्रभुत्व
की घोषणा की तथा अश्वमेध यज्ञ किया। इसी काल में प्राकृत भाषा का उदय हुआ।
रुद्रदामन शकों की शाखा का सबसे शक्तिशाली शासक था।
प्रश्न 15. दैविक राजा से क्या तात्पर्य है ? संक्षिप्त विवरण
दीजिए।
उत्तर:
कुषाण शासकों ने अपने राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने तथा प्रजा से
पूजनीय तथा उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए अपने आपको ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप
में प्रस्तुत किया जिसका सर्वोत्तम प्रमाण उनकी मूर्तियों और सिक्कों से प्राप्त
होता है। कई कुषाण शासक अपने नाम के आगे देवपुत्र की उपाधि लगाते थे। अनुमान लगाया
जाता है कि उन्होंने चीनी शासकों का अनुसरण किया जो अपने नाम के आगे 'स्वर्गपुत्र' की उपाधि लगाते थे।
कुषाण और शकों ने इस बात का प्रचार किया कि राजा को शासन
करने का दैवीय अधिकार परमात्मा से प्राप्त है और यह अधिकार वंशानुगत है। उत्तर
प्रदेश के मथुरा जिले में माट नामक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय
मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अफगानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की
मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि इन मूर्तियों के द्वारा
वे स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करने की भावना रखते थे।
प्रश्न 16. रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से कौन-सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त
होती हैं?
अथवा
आप कैसे कह सकते हैं कि रुद्रदामन ने संस्कृत भाषा को बढ़ावा
देने का प्रयास किया?
उत्तर:
शक शासक रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से सुदर्शन झील के सम्बन्ध में
महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। संस्कृत में लिखित इस अभिलेख के अनुसार
जलद्वारों व तटबंधों वाली इस झील का निर्माण मौर्य काल में एक स्थानीय राज्यपाल ने
करवाया था, लेकिन एक भीषण तूफान की वजह से इसके तटबंध टूट गए
और इसका सारा पानी बह गया। तत्कालीन शासक रुद्रदामन ने अपने खर्चे से इसकी मरम्मत
करवायी थी। तत्पश्चात् गुप्त वंश के शासक ने पुनः इस झील की मरम्मत करवायी थी। इस
अभिलेख से यह भी स्पष्ट होता है कि रुद्रदामन ने संस्कृत भाषा को बढ़ावा देने का
प्रयास किया।
प्रश्न 17. जातक और पंचतंत्र की कथाओं से इतिहासकार किस प्रकार राजा और प्रजा के बीच
सम्बन्धों का अनुमान लगाते हैं ?
उत्तर:
अभिलेखों से राज्य की साधारण प्रजा की अपने राजा के सम्बन्ध में
क्या धारणा थी, इसके प्रमाण नहीं प्राप्त होते हैं। इसलिए
इतिहासकार राजा और प्रजा के बीच सम्बन्धों की जानकारी जातक और पंचतंत्र की
कहानियों की समीक्षा करके जानने का प्रयास करते हैं। गंदतिन्दु' नामक एक जातक कथा में यह वर्णन है कि एक कुटिल राजा वेश बदलकर प्रजा के
बीच यह जानने के लिए गया कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं।
प्रजा ने अपनी पीड़ा को यह कहकर व्यक्त किया कि रात में
चोर-डकैत उनको लूटते हैं और दिन में राज्य कर्मचारी। ऐसी परिस्थिति से बचने के लिए
लोग गाँव छोड़कर जंगल में बस गए। अतः इस कथा से इतिहासकार यह अनुमान लगाते हैं कि
उस राजा के राज्य में प्रजा की दशा अच्छी नहीं थी तथा शासक अपने राजकोष को भरने
हेतु बड़े-बड़े कर लगाते थे जिससे किसान विशेष रूप से त्रस्त रहते थे।
प्रश्न 18. 600
ई. पू. से 600 ई. में देहात के लोगों की
आर्थिक और सामाजिक स्थितियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आर्थिक स्थिति-उपज बढ़ाने के विभिन्न तरीकों को अपनाया गया; जैसे-हल का प्रचलन, लोहे के फाल वाले हल से उर्वर
भूमि की जुताई तथा सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों व नहरों के
उपयोग में वृद्धि। ई.की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमि दान के प्रमाण मिलते हैं।
जैसे-प्रभावती गुप्त के अभिलेख। इससे राज्य और कृषकों के मध्य के सम्बन्धों की झलक
मिलती है, लेकिन पशुपालक, संग्राहक,
शिकारी, मछुआरे, शिल्पकार
तथा जगह-जगह घूमकर खेती करने वाले लोगों पर अधिकारियों या सामंतों का नियंत्रण
नहीं था।
सामाजिक स्थिति-खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद
बढ़ता जा रहा था। भूमि के स्वामित्व के आधार पर समाज बड़े-बड़े जमींदार, मध्यम कृषक, छोटे
कृषक, भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों आदि में विभाजित हो गया था।
बड़े-बड़े जमींदार व ग्राम प्रधानों का प्रभुत्व था जो प्रायः कृषकों पर नियंत्रण
रखते थे। घर के मुखिया को गहपति कहते थे जो घर की महिलाओं, बच्चों
व दासों पर नियंत्रण रखता था।
प्रश्न 19. भूमि के स्वामित्व, श्रम और खेती के नए तरीकों पर
आधारित वर्गों की विभिन्नता क्या थी ?
अथवा
ग्रामीण समाज की विभिन्नताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
खेती की नयी तकनीकों के प्रयोग से उपज में व्यापक वृद्धि हुई,
लेकिन इससे खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ने लगा। समाज भूमि के
स्वामित्व के आधार पर विभिन्न वर्गों; जैसे- बड़े-बड़े
जमींदार, मध्यम किसान, छोटे किसान और
भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों में विभाजित हो गया। बौद्ध ग्रन्थों में पालि भाषा में
जमींदारों और मध्यम किसानों के लिए गहपति शब्द का उल्लेख किया गया है। बड़े-बड़े
जमींदारों और ग्राम प्रधानों का प्रभुत्व था
और वे अन्य लोगों पर अपना नियन्त्रण रखते थे। - तमिल
साहित्य में भी खेती से जुड़े विभिन्न वर्गों के लोगों का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे कि वेल्लालर (बड़े जमींदार), उल्वर (हलवाहा), दास (अणिमई) आदि। इतिहासकार अनुमान
लगाते हैं कि इस वर्ग विभेद या ग्रामीण समाज की विभिन्नताओं का आधार भूमि का
स्वामित्व तथा श्रम और खेती में नयी प्रौद्योगिकी का उपयोग था। सम्पन्नता हेतु ऐसी
परिस्थिति में भूमि का स्वामित्व महत्वपूर्ण हो गया था।
प्रश्न 20. अभिलेखों से भूमिदान के सम्बन्ध में क्या विवरण प्राप्त होते हैं ?
उत्तर:
भूमिदान से सम्बन्धित अभिलेख देश के कई हिस्सों से प्राप्त हुए हैं,
कहीं-कहीं भूमि के छोटे टुकड़े तो कहीं बड़े-बड़े क्षेत्रों के दान
का उल्लेख है। कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गए थे तथा अधिकांश अभिलेख ताम्रपत्रों
पर उत्कीर्ण हैं। साधारणतया भूमिदान ब्राह्मणों और सामाजिक संस्थाओं को दिया जाता
था।
अभिलेख अधिकांशतया संस्कृत में लिखे जाते थे तथा कुछ अभिलेख
तमिल और तेलुगु भाषा में भी हैं। कुछ महिलाओं द्वारा भी भूमिदान के साक्ष्य
प्राप्त होते हैं। वाकाटक वंश के राजा की रानी तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री
प्रभावती गुप्त ने ब्राह्मणों को भूमिदान किया था
प्रश्न 21. पाटलिपुत्र नगर के विकासक्रम को बताइए।
उत्तर:
पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नामक एक गाँव से हुआ था। 5वीं शताब्दी ई. पू. में मगध के शासकों ने अपनी राजधानी राजगृह से हटाकर इस
बस्ती में लाने का निर्णय किया तथा इसका नाम पाटलिपुत्र रख दिया। चौथी शताब्दी ई.
पू. तक आते-आते यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी बन गया। उस समय यह नगर एशिया के
सबसे बड़े नगरों में से एक था, परन्तु बाद में इसका महत्व कम
हो गया। 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनत्सांग की
पाटलिपुत्र यात्रा के समय यह नगर खंडहर के रूप में मिला तथा उस समय यहाँ की
जनसंख्या भी बहुत कम थी।
प्रश्न 22. भारतीय उपमहाद्वीप और उसके विदेश व्यापार पर टिप्पणी कीजिए।
अथवा
"छठी शताब्दी ई.पू. से ही भारतीय उपमहाद्वीप में 'भू' और 'नदीप' मागों का जाल फैला था।" इस कथन को व्यापार के संदर्भ में प्रमाणित
कीजिए।
उत्तर:
उत्तरी भारत की एकता तथा गुप्त शासकों द्वारा देश में शान्ति
स्थापना के कारण आन्तरिक और विदेशी व्यापार में बहुत . उन्नति हुई जिसके कारण देश
में व्यापक आर्थिक प्रगति हुई। छठी शताब्दी ई. पू. से ही परिवहन के लिये भूतल
मार्गों और सामुद्रिक यातायात के लिए समुद्री मागों का जाल बिछ गया था। भू-मार्ग
मध्य एशिया और उसके आगे तक जाते थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदी मार्गों के
किनारे तथा पुहार, सोपारा जैसे नगर समुद्र तट पर बसे हुए थे।
जलमार्ग अरब सागर से होते हुए उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तथा बंगाल की खाड़ी से होते
हुए चीन और दक्षिण पूर्व एशिया तक फैल गया था। विभिन्न प्रकार का कपड़ा, खाद्य-पदार्थ, अनाज, मसाले,
नमक आदि आन्तरिक व्यापार की मुख्य वस्तुएँ थीं। निर्यात की वस्तुओं
में कपड़ा, जड़ी-बूटी, मसाले, काली मिर्च, नील तथा हाथी दाँत की वस्तुएँ मुख्य थीं
जिनको अरब सागर के रास्ते भूमध्य क्षेत्र तक भेजा जाता था।
प्रश्न 23. इतिहास के अध्ययन हेतु सिक्के महत्वपूर्ण स्रोत हैं, टिप्पणी कीजिए।
अथवा
छठी शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी ई. तक भारत में सिक्कों की
विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा।
“भारतीय इतिहास की अवधि निर्धारित करने में सिक्के एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं।" दो बिन्दुओं के साथ कथन को न्यायसंगत ठहराइए।
आशमा
उत्तर:
प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए सिक्के बहुत महत्वपूर्ण
स्रोत हैं। देश के विभिन्न भागों से इस काल के सिक्के बहुत अधिक संख्या में
प्राप्त हुए हैं। सिक्कों पर खुदे हुए अक्षरों, चिह्नों तथा
उनके भार और धातु के आधार पर वर्गीकरण के द्वारा व्यापारिक सम्बन्धों तथा शासकों
के सम्बन्ध में क्रमबद्ध जानकारी प्राप्त होती है।
आहत सिक्कों पर चिह्न तथा विशेष राजाओं के वंश के नाम से
उनको जारी करने वाले शासकों के सम्बन्ध में विवरण प्राप्त होता है। कुषाण प्रथम
शासक थे जिन्होंने सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर जारी किए। चाँदी और ताँबे के आहत
सिक्के छठी शताब्दी ईसा पूर्व प्रचलन में आए। सिक्कों के द्वारा व्यापार विनिमय
में आसानी होती थी। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहा जाता है।
प्रश्न 24. ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि का अध्ययन कैसे किया गया ?
उत्तर:
ब्राह्मी लिपि भारत की सभी भाषा लिपियों की जननी है। यूरोपीय और
भारतीय विद्वानों ने बंगाली और देवनागरी शब्दों को पढ़कर उनकी पुराने अभिलेखों के
शब्दों से तुलना की। आरंभिक अभिलेखों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने कई बार यह
अनुमान लगाया कि इन अभिलेखों की भाषा संस्कृत थी, परन्तु
वास्तव में अभिलेखों की भाषा प्राकृत थी। 1830 के दशक में
जेम्स प्रिंसेपें ने अथक प्रयासों से अशोककालीन ब्राह्मी लिपि को पढ़ने और उसका
अर्थ निकालने में सफलता प्राप्त की।
पश्चिमोत्तर भाग से प्राप्त होने वाली खरोष्ठी लिपि को
पढ़ने की विधि सर्वथा भिन्न थी। हिन्द-यूनानी राजाओं द्वारा प्रचलित सिक्कों में
राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे हुए थे। यूनानी विद्वान, जो यूनानी लिपि को पढ़ने में समर्थ थे,
ने खरोष्ठी भाषा के शब्दों को उसके साथ मिलान करके पढ़ने में सफलता
प्राप्त की। उदाहरण के लिए, दोनों लिपियों में अपोलोडोटस
राजा का नाम लिखने के लिए एक ही प्रतीक 'अ' प्रयुक्त किया गया। जेम्स प्रिंसेप. ने यह निष्कर्ष निकाला कि खरोष्ठी
भाषा के अभिलेख प्राकृत में हैं, जिससे इन अभिलेखों का
अध्ययन आसान हो गया।
प्रश्न 25. अशोक के अभिलेखों का इतिहास-निर्माण में क्या महत्व है ? समझाइए।
उत्तर:
इतिहास का निर्माण पुरातात्विक तथा साहित्यिक स्रोतों के माध्यम से
होता है जिसमें पुरातात्विक स्रोतों से प्राप्त अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते
हैं। अशोक ने अपने शासन-काल में अनेक अभिलेख खुदवाए थे जो वस्तुतः अशोक के द्वारा
प्रजा को किया गया सम्बोधन था। इन अभिलेखों से हमें न सिर्फ राज्य-प्रशासन अपितु
जनता, धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था, पड़ोसी राज्यों इत्यादि का विस्तृत
विवरण प्राप्त होता है।
इन अभिलेखों से इतिहासकारों को निश्चय ही अनेक महत्वपूर्ण
तथा ऐतिहासिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। इतिहासकार आर. जी. भण्डारकर ने तो इन
अभिलेखों के आधार पर अशोक का भी सम्पूर्ण इतिहास लिख दिया है। इस प्रकार स्पष्ट है
कि इतिहास-निर्माण में अभिलेख (विशेषकर अशोक के अभिलेख) अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाते हैं।
प्रश्न 26. क्या अशोक के धम्म की वर्तमान में भी प्रासंगिकता है ? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
अशोक द्वारा अपने अधिकारियों और प्रजा को दिये गये संदेशों की
वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
सम्राट अशोक ने सभी धर्मों का सरल स्वरूप स्थापित किया जो धम्म
कहलाया। अशोक ने अपने अधिकारियों और प्रजा को धम्म का संदेश दिया जिसकी वर्तमान
सन्दर्भ में भी प्रासंगिकता है। अशोक के धम्म का स्वरूप मानवतावादी था जो नैतिक
नियमों के पालन पर जोर देता है। अशोक के धम्म में बड़ों का आदर, सेवक तथा दासों के प्रति उदार व्यवहार तथा दूसरे सम्प्रदायों के प्रति आदर
की भावना सम्मिलित है।
वर्तमान युग में हम देखते हैं कि नई युवा पीढ़ी अपने बड़ों
(माता-पिता) को एक. बोझ समझते हैं तथा उन्हें उपेक्षित एवं अकेला छोड़ देते हैं।
धनी तथा शक्तिशाली लोग गरीब एवं उपेक्षित लोगों के अधिकारों को दबाकर उनका शोषण
करते हैं। व्यक्ति अपने धर्म को अच्छा बताकर दूसरे धर्मों की बुराई करता है। अशोक
के धम्म में जिन आदर्शों का उल्लेख किया गया है, व्यक्ति उन्हें अपने जीवन में उतार कर एक आदर्श एवं सुखी जीवन जी सकता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्रारंभिक राज्यों के रूप में महाजनपदों के राजनीतिक इतिहास का विस्तार से
वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रारंभिक राज्यों के रूप में महाजनपदों के राजनीतिक इतिहास का
विवरण निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है
(1) प्रारंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. को एक
महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इस काल का सम्बन्ध प्रायः आधुनिक
राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग
एवं सिक्कों के विकास के साथ स्थापित किया जाता है। इसी काल के दौरान बौद्ध एवं
जैन धर्म सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का जन्म एवं विकास हुआ। बौद्ध एवं जैन
धर्म के आरंभिक
ग्रन्थों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का
उल्लेख मिलता है। यद्यपि इन ग्रन्थों में महाजनपदों के सभी नाम एक जैसे नहीं हैं
लेकिन मगध, कोसल, वज्जि, कुरु, पांचाल, गांधार एवं
अवन्ति जैसे नाम प्रायः एक समान देखने को मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि अपने
समय में इन सभी महाजनपदों की गिनती महत्वपूर्ण महाजनपदों में होती होगी। .
(2) अधिकांश महाजनपदों का शासन राजा द्वारा संचालित होता था, लेकिन गण एवं संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन
करता था जिसका प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान बुद्ध एवं भगवान महावीर
इन्हीं गणों से सम्बन्ध रखते थे। वज्जि संघ की ही भाँति कुछ अन्य राज्यों में भूमि
सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा व गण सामूहिक रूप से नियन्त्रण स्थापित रखते थे।
यद्यपि इन राज्यों के इतिहास स्रोतों के अभाव के कारण नहीं लिखे जा सके हैं,
लेकिन यह सम्भावना है कि ऐसे कई राज्य लगभग एक हजार वर्ष तक
अस्तित्व में रहे होंगे।
(3) प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी थी जिसके चारों ओर किले का निर्माण किया
जाता था। किलेबंद राजधानी शहर के रखरखाव एवं नौकरशाही के खर्चों के लिए बहुत बड़ी
मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती थी। लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से संस्कृत में
ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थों का लेखन प्रारंभ किया जिनमें शासक सहित
अन्य लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया तथा यह माना गया कि शासक क्षत्रिय
वर्ग का ही होना चाहिए।
(4) इस काल में शासकों का कार्य कृषकों, व्यापारियों एवं
शिल्पकारों से कर एवं भेंट वसूलना माना जाता था। वनवासियों एवं चरवाहों से कर लिए
जाने की कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। इस काल में पड़ौसी राज्यों पर आक्रमण
करके भी धन एकत्रित किया जाता था। धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ
एवं नौकरशाही तंत्र तैयार करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ राज्य अभी भी सहायक सेना पर
ही निर्भर थे जिसमें कृषक वर्ग से ही नियुक्तियाँ की जाती थीं।
प्रश्न 2. मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना करने वाले किन्हीं चार
स्रोतों को स्पष्ट कीजिए। मौर्य प्रशासन व्यवस्था की परख कीजिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का संक्षिप्त वर्णन
निम्नवत् है
(1) केन्द्रीय शासन– सम्राट सर्वोच्च
तथा राजकीय सत्ता का प्रमुख केन्द्र होता था जिसके पास असीमित शक्तियाँ होती थीं।
सम्राट नियमों का निर्माता, सर्वोच्च न्यायाधीश, सेनानायक एवं मुख्य कार्यकारिणी का अध्यक्ष होता था। मौर्य साम्राज्य का
विस्तार होने से सम्राट की शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों में वृद्धि हुई।
(2) राजा के अधिकारियों के दायित्व राजा ने राज-कार्यों में सहायता एवं
परामर्श हेतु मंत्रिपरिषद की स्थापना की थी जिसमें चरित्रवान तथा बुद्धिमान व्यक्तियों
की नियुक्ति की जाती थी, परन्तु मंत्रिपरिषद का निर्णय राजा
के लिए मानना अनिवार्य नहीं था। मंत्रियों के अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते
थे; जैसे-अमात्य, महामात्य, अध्यक्ष आदि। अमात्य मंत्रियों के अधीन विभागों का काम सँभालते थे।
(3) प्रान्तीय शासन- शासन
संचालन की कुशल व्यवस्था हेतु मौर्य शासकों ने साम्राज्य को पाँच विभिन्न
प्रान्तों में विभाजित किया था, उत्तरी
प्रान्त (राजधानी तक्षशिला), पश्चिमी प्रान्त (राजधानी
उज्जैन), दक्षिणी प्रान्त (राजधानी सुवर्णगिरी), कलिंग प्रान्त (राजधानी तोसलि) तथा केन्द्रीय प्रान्त (राजधानी
पाटलिपुत्र)। प्रान्तीय शासन का प्रमुख राजपरिवार से सम्बन्धित होता था जिसे कुँवर
कहा जाता था
जिसका मुख्य कार्य प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखना था।
(4) नगर की प्रशासनिक व्यवस्था उचित प्रशासनिक व्यवस्था हेतु नगर को कई भागों
में बाँटा गया था। प्रत्येक नगर की अपनी नगरपालिका तथा न्यायपालिका थी।
न्यायाधीशों की सहायता हेतु न्यायाधिकारी होते थे। नगरपालिका में अध्यक्ष की
सहायता हेतु तीस सदस्यीय कमेटियाँ बनाई गयी थीं जो कि छः छोटी-छोटी इकाइयों में
विभाजित थीं। पहली समिति शिल्पकारों के हितों की रक्षा करती थी तथा वेतन निर्धारित
करती थी। दूसरी समिति विदेशियों का ध्यान रखती थी। तीसरी समिति जन्म-मृत्यु का
विवरण रखती थी। चौथी समिति व्यापारिक हितों का ध्यान रखती थी। पाँचवीं समिति
व्यापारिक उत्पादों, मिलावटखोरों पर नियन्त्रण रखती थी। छठी
समिति कर संग्रह, शिक्षा व्यवस्था, धार्मिक
तथा सामाजिक संस्थाओं की देखभाल करती थी। छठी समिति के कार्यों में सभी समितियों
का योगदान . होता था।
(5) ग्रामीण प्रशासनिक व्यवस्था- ग्राम प्रशासन की व्यवस्था, ग्राम पंचायतों के द्वारा की जाती थी। ग्राम का मुखिया 'ग्रामिक' अथवा 'ग्रामिणी'
कहलाता था। ग्राम पंचायतों में कार्य हेतु गोप की नियुक्ति की जाती
थी जो गाँवों में परिवारों की संख्या, घर के सदस्यों की
संख्या, खेतों एवं बागों के स्वामित्व, फसलों, कर, सड़क, पानी आदि का लेखा-जोखा रखते थे। छोटी-मोटी समस्याओं तथा झगड़ों का हल गाँव
के बुजुर्गों द्वारा पंचायत में होता था तथा अन्य झगड़ों का निपटारा न्यायपालिका
द्वारा किया जाता था।
(6) सेना प्रणाली- मौर्य
शासकों ने शक्तिशाली सेना का गठन किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पैदल, 30,000 घुड़सवार
तथा 9 हजार हाथी एवं 8 हजार रथ थे।
मेगस्थनीज के अनुसार विशाल सेना के प्रबन्ध हेतु अलग से युद्ध मंत्रालय स्थापित
किया गया था।
(7) समाज, कला, शिक्षा तथा आर्थिक
स्थिति—कृषि लोगों का प्रमुख
व्यवसाय था। कृषि आधारित पशुपालन, शिल्प
तथा उद्योग काफी उन्नत अवस्था में थे। साहित्य और शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार
था। तक्षशिला बहुत बड़ा विश्वविद्यालय था। जहाँ दर्शनशास्त्र, साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। अशोक पहला सम्राट था जिसके
बनवाये गए स्तम्भ शिल्पकला के अद्भुत उदाहरण हैं। शाही महलों के समकालीन अभिलेख इस
काल की भवन निर्माण कला पर प्रकाश डालते हैं। सार यह है कि मौर्य साम्राज्य की
प्रशासनिक व्यवस्था उच्च कोटि की थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्रधानमंत्री
चाणक्य की सहायता से एक आदर्श शासन प्रणाली स्थापित की जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में भी अतुलनीय है।
प्रश्न 3. मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लगभग 321 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध
राज्य पर अधिकार करके मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। मौर्य वंश के उदय के साथ ही
भारत का इतिहास अधिक रोचक बन जाता है क्योंकि इस काल में इतिहासकारों को तमाम ऐसे
ऐतिहासिक साक्ष्य और विवरण प्राप्त होते हैं जो काफी हद तक विश्वसनीय हैं।
प्रमुख स्रोतों का वर्णन निम्न है -
(1) मेगस्थनीज द्वारा लिखित विवरण:
यूनानी शासक सेल्यूकस का राजदूत मेगस्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य
के दरबार में 302 ई. पू. से 298 ई. पू.
तक रहा था जिसने अपनी पुस्तक इंडिका में भारत में देखे गए वृतान्त का
प्रत्यक्षदर्शी विवरण लिखा है। मेगस्थनीज ने सम्राट चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था,
सैनिक गतिविधियों का संचालन तथा मौर्यकालीन सामाजिक व्यवस्था के
बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। मेगस्थनीज द्वारा इंडिका में दिया गया वर्णन
काफी हद तक प्रामाणिक माना जाता है।
(2) चाणक्य का अर्थशास्त्र:
चाणक्य या कौ य द्वारा रचित अर्थशास्त्र मौर्यकालीन इतिहास का एक
अन्य प्रमुख स्रोत है। मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं
आर्थिक दशाओं का अर्थशास्त्र में व्यापक वर्णन है; जैसे-केन्द्रीय
शासन, प्रान्तीय शासन, नगर प्रशासन,
बड़े नगरों का प्रबन्ध, ग्राम शासन, न्याय प्रणाली, गुप्तचर विभाग, वित्त तथा राजस्व प्रणाली, प्रजा हितार्थ राजा के
कर्त्तव्य, सैनिक प्रबन्ध आदि के बारे में व्यापक
दिशा-निर्देश दिए गए हैं।
(3) जैन, बौद्ध तथा पौराणिक ग्रन्थ:
जैन, बौद्ध तथा पौराणिक ग्रन्थों से भी मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त
होती है। जैन विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, तमिल जैसी भाषाओं में काफी साहित्य का सृजन किया, भद्रबाहु
के 'कल्पसूत्र' नामक ग्रन्थ से
मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी मिलती है। बौद्ध धर्म जब श्रीलंका जैसे नए क्षेत्रों
में पहुँचा तो महान इतिहास (महावंश) और द्वीप का इतिहास (द्वीपवंश) जैसे क्षेत्र
विशेष के बौद्ध इतिहास को लिखा गया जिसमें मौर्यकालीन इतिहास का वर्णन किया गया
है। मौर्य शासकों का उल्लेख पौराणिक ग्रन्थों तथा संस्कृत वाङ्मय में भी प्राप्त
होता है।
(4) विशाखदत्त द्वारा रचित नाटक:
पाँचवीं शताब्दी ई. में विशाखदत्त द्वारा रचित नाटक मुद्राराक्षस
में चन्द्रगुप्त द्वारा नंदवंश की पराजय का विवरण दिया गया है। इतिहासकारों द्वारा
विशाखदत्त की रचना 'मुद्राराक्षस' को
भी मौर्य वंश के इतिहास का एक प्रामाणिक स्रोत माना गया है।
(5) पुरातात्त्विक प्रमाण:
पुरातात्विक प्रमाण भी मौर्यकालीन इतिहास पर प्रकाश डालते हैं।
उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों, राजप्रासादों, स्तम्भों, सिक्कों आदि से उस काल के इतिहास को जानने
में काफी सहायता प्राप्त होती है।
(6) अभिलेख:
सम्राट अशोक ने अपने शासन काल में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण करवाए जिनसे
मौर्यकालीन शासन व्यवस्था, नैतिक आदर्शों, धम्मपद के सिद्धान्तों तथा जनकल्याण के लिए किए गए कार्यों की व्यापक
जानकारी प्राप्त होती है। जूनागढ़ के अभिलेख तथा अशोक द्वारा लिखवाये गये अभिलेख
इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। मौर्यकालीन शासकों के सिक्के भी इस काल का इतिहास
जानने में काफी सहायता करते हैं।
प्रश्न 4. राजधर्म के नवीन सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए तथा दक्षिण के राजा,
सरदारों एवं दक्षिणी राज्यों के उदय पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के सभी भागों में नहीं फैल पाया।
साम्राज्य की सीमा के अन्तर्गत भी प्रशासन का नियन्त्रण एकसमान नहीं था। दूसरी
शताब्दी ई. पू. आते-आते राजधर्म के नवीन सिद्धान्त स्थापित होने शुरू हो गये।
उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्रों, जिनमें
आंध्र प्रदेश, केरल तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल थे जिसे
संयुक्त रूप से तमिलकम कहा जाता था, में नयी सरदारियों का
उदय हुआ जिनमें चोल, चेर तथा पांड्य प्रमुख थीं।
तीसरी शताब्दी के आरम्भ में मध्य भारत तथा दक्षिण में एक
नया वंश जिसे वाकाटक कहते थे, बहुत
प्रसिद्ध था। चोल, चेर तथा पाण्ड्य सरदारियाँ कृष्णा नदी के
दक्षिण में थीं। ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए जिनके बारे में संगम
साहित्यों (काव्यात्मक रूप में) से पर्याप्त विवरण प्राप्त होता है। सरदार एक
शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति होता था। प्रायः सरदार का पद वंशानुगत होता था,
कहीं-कहीं अपवाद भी हैं।
सरदारियों की राज्य व्यवस्था, साम्राज्यों की व्यवस्था से भिन्न होती थी। उनकी व्यवस्था में कराधान नहीं
था, सामान्य लोग सरदारों को स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक
विभिन्न वस्तुएँ उपहारस्वरूप देते थे क्योंकि वे उनके अधीन रहकर सुखी एवं प्रसन्न
थे। साम्राज्य व्यवस्था में लोगों को कर देना पड़ता था। भेंटस्वरूप प्राप्त
वस्तुओं को सरदार अपने समर्थकों में वितरित कर देते थे।
सरदारी में साधारण रूप से कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं
होते थे। सरदार का कार्य विशेष अनुष्ठानों का संचालन करना था तथा विवादों को
सुलझाने में मध्यस्थता करना भी था। कई सरदार और राजा लम्बी दूरी के व्यापार द्वारा
राजस्व एकत्र करते थे जिनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले
सातवाहन और भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य
एशियाई मूल के शक शासक प्रमुख थे।
मध्य एशियाई मूल के इन शासकों के सामाजिक उद्गम के बारे में
विशेष विवरण प्राप्त नहीं है, लेकिन
सत्ता में आने के बाद इन्होंने राजधर्म में नवीन सिद्धान्त की स्थापना की और
राजत्व के अधिकार को दैवीय अधिकार से जोड़ा। इन शासकों ने इस बात का प्रचार किया
कि इन्हें शासन करने का दैवीय अधिकार परमात्मा की ओर से प्राप्त है।
कुषाण शासकों ने अपने आपको देवतुल्य प्रस्तुत करने के
प्रयास में देवस्थानों (मन्दिर आदि) पर अपनी विशालकाय मूर्तियाँ लगवाईं जो उत्तर
प्रदेश में मथुरा के निकट माट से तथा अफगानिस्तान के एक देवस्थान से प्राप्त हुई
हैं। वे अपने आपको देवपुत्र कहते थे। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था।
चौथी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े-बड़े
साम्राज्यों के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इस काल को भी इतिहास में विशेष स्थान
प्राप्त है। इस काल में सामन्ती प्रथा का उदय हुआ। कई साम्राज्य सामन्तों प' र थे, वे अपना
निर्वाह स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे, जिसमें भूमि पर
नियन्त्रण भी शामिल था। वे अपने राज्य के शासकों का आदर करते थे और उनकी सैनिक
सहायता भी करते थे।
जो सामन्त शक्तिशाली होते थे वे राजा बन जाते थे और जो राजा
दुर्बल होते थे वे बड़े शासकों के अधीन हो जाते थे। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के
पतन के बाद राजधर्म के नवीन सिद्धान्तों का चलन प्रारम्भ हुआ। सरदार और सरदारी, सामन्ती प्रथा, राजत्व
का दैवीय अधिकार आदि इन सिद्धान्तों के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
प्रश्न 5. ग्रामीण वैदिक संस्कृति किस प्रकार छठी शताब्दी ई. पू. तक नगरीय सभ्यता
में परिवर्तित हुई? यह नगरीय सभ्यता किस प्रकार साम्राज्यवाद
में परिवर्तित हुई ? विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
(1) भारत में वैदिककाल का प्रारम्भ 1500 ई.
पू. से माना जाता है। वैदिककाल को दो भागों में विभाजित किया जाता है - पूर्व
वैदिककाल (1500-1000 ई. पू.) तथा उत्तर वैदिककाल (1000-600
ई. पू.)। पूर्व वैदिककाल पूर्णरूप से ग्रामीण संस्कृति थी। इस समय
अर्थव्यवस्था मुख्यतः पशुपालन पर आधारित थी तथा कुछ मात्रा में कृषि उत्पादन भी
होता था। इस समय लोहा नामक धातु का पूर्णतया अभाव था।
(2) लगभग 1000 ई. पू. के आस-पास उत्तर वैदिककाल में लोहे
का प्रचुर मात्रा में उत्खनन तथा उपयोग आरम्भ हो गया था। लोहे के प्रयोग ने एक
क्रान्ति उत्पन्न कर दी। सर्वप्रथम लोहे के औजारों से गंगा दोआब के घने जंगल काटकर
कृषियोग्य भूमि बनाई गई। कुदाल तथा कुल्हाड़ी से पेड़ों की गहरी जड़ें भी सुगमता
से खुद गयीं, इस प्रकार विस्तृत मात्रा में कृषियोग्य भूमि
निर्मित हो गयी तथा लोहे के हल से गहरी जुताई होने लगी। इन सबके परिणामस्वरूप अधिक
मात्रा में कृषि पैदावार होने लगी।
(3) अधिक कृषि की पैदावार के रण राज्य को अधिक मात्रा में राजस्व की प्राप्ति
होने लगी। अधिक राजस्व की प्राप्ति के लिए राज्य-प्रशासन ने भी विस्तृत तथा
व्यवस्थित कर-प्रणाली विकसित करना आरम्भ कर दिया। इस कर-प्रणाली का ब्राह्मणवादी
व्यवस्था के अन्तर्गत कड़ाई से पालन किया गया जिसके फलस्वरूप समाज में असन्तोष
व्याप्त हो गया।
(4) यह असन्तोष अनेक जन आन्दोलनों के रूप में सामने आया जिसमें जैन तथा बौद्ध
आन्दोलन प्रमुख हैं। इन सब आन्दोलनों के कारण राज्य के लिए स्थायी सेना रखना और भी
अधिक आवश्यक हो गया। स्थायी सेना के कारण राज्य अपने क्षेत्र की सीमाओं को भी
विस्तृत करने लगे।
पूर्व वैदिककालीन जनपद अब महाजनपद के रूप में परिवर्तित
होने लगे। इस प्रकार कुल सोलह महाजनपदों का उद्भव हुआ। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ
अंगुत्तरनिकाय तथा जैन ग्रन्थ 'भगवती
सूत्र' से इन सोलह महाजनपदों का विवरण प्राप्त होता है
जिनमें मगध सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद था।।
(5) मगध के पास वे सभी तत्व थे जिनके माध्यम से एक शक्तिशाली साम्राज्य की
स्थापना होती है। भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित, उपजाऊ कृषि
भूमि, खनिज संसाधनों की बहुलता, यातायात
के उत्तम साधन, कूटनीति, महत्वाकांक्षी
शासक इत्यादि ही वे तत्व थे जिनके माध्यम से मगध एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में
उभरा।
(6) लगभग 321 ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने कौटिल्य
(चाणक्य) की सहायता से मौर्य वंश की स्थापना की जो एक जनतान्त्रिक तथा लोकप्रिय
वंश था। इसके शासनकाल में भारत की सीमाएँ गांधार तक फैल गईं।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार नगरों
का विकास होता है अथवा नगरों के विकास में किन-किन तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका
होती है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे एक साम्राज्य की स्थापना होती है
तथा कैसे उसका पतन होता है।
प्रश्न 6. भूमिदान क्या है ? इतिहासकारों में भूमिदान का
प्रभाव एक वाद-विवाद का विषय है, व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्राचीनकाल में राजाओं द्वारा दिये गये भूमिदान के सम्बन्ध में अनेक
साक्ष्यों के प्रमाण अभिलेखों के रूप में प्राप्त हुए हैं। साधारणतया राजाओं
द्वारा ब्राह्मणों तथा अन्य धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं; जैसे-मन्दिर,
मठ, चैत्य, विहार तथा
शिक्षा के केन्द्रों को भूमिदान दिया जाता था। भूमि का वह भाग जो ब्राह्मणों को
दान दिया जाता था उसे अग्रहार कहा जाता था। दान प्राप्त करने वाले ब्राह्मणों या
संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार लिखित रूप से प्रदान किए जाते थे। उनसे किसी प्रकार
के कर नहीं वसूले जाते थे तथा उन्हें स्वयं कर वसूलने का अधिकार दिया जाता था।
भूमिदान के प्रमाणस्वरूप प्राप्त अभिलेख पत्थरों तथा ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण किये
गये हैं। अधिकांश अभिलेख संस्कृत भाषा में तथा कुछ तमिल और तेलुगु जैसी क्षेत्रीय
भाषाओं में भी प्राप्त हुए हैं। महिलाओं द्वारा दिये गये भूमिदान के भी प्रमाण
प्राप्त हुए है।
संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार महिलाओं को भूमि सम्बन्धी
स्वतन्त्र अधिकार प्राप्त नहीं थे, परन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त, जो दक्कन के वाकाटक परिवार की रानी थी, ने दंगुन
ग्राम को आचार्य चनाल स्वामी को दान दिया था जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि
भूमि के अधिकार सम्बन्धी नियम दक्षिण में भिन्न थे। कहीं-कहीं भूमि के छोटे-छोटे
टुकड़े तो कहीं-कहीं बड़े-बड़े भू-भाग दानस्वरूप दिये जाते थे।
भूमिदान के अभिलेखों के द्वारा हमें राज्य तथा उसकी ग्रामीण
प्रजा एवं किसानों के मध्य सम्बन्धों की भी झलक प्राप्त होती है। क्षेत्र विशेष के
अनुसार दान प्राप्त करने वाले लोगों के अधिकारों में भी विभिन्नता प्राप्त होती
है। इतिहासकारों में भूमिदान का प्रभाव एक वाद-विवाद का विषय इसलिए है कि भूमिदान
के सम्बन्ध में इतिहासकारों के मतों में विभिन्नता है। कुछ इतिहासकारों की धारणा
यह है कि शासकों द्वारा भूमिदान कृषि को प्रोत्साहन देने हेतु दिया जाता था जो नए
क्षेत्रों में कृषि के विकास के सम्बन्ध में शासकों की एक रणनीति थी।
अन्य कुछ इतिहासकारों का कथन है कि साम्राज्य की विशालता
तथा केन्द्रीकृत शासन के प्रभुत्व के कमजोर होने से राजा का दूरस्थ प्रान्तों के
सामन्तों पर नियन्त्रण कमजोर होने लगा तथा नियन्त्रण कमजोर होने से सामन्त अपने
स्वतन्त्र प्रभुत्व की घोषणा करने लगे इसलिए शासकों ने भूमिदान के माध्यम से
लोकप्रियता अर्जित करके अपने समर्थक जुटाने प्रारम्भ कर दिये। . कुछ इतिहासकारों
का मानना है कि राजा स्वयं को दैवीय रूप से प्रदर्शित करने की आडम्बरयुक्त भावना रखते
थे कि वे परमात्मा के समान लोगों की नियति बदल सकते हैं।
इसी दैवीय रूप को प्रस्तुत करने के लिए बड़ी-बड़ी जागीरें, भारी धनराशि राजा दान करते थे। निष्कर्ष यह
है कि इतिहासकारों के उपर्युक्त सभी तर्क-वितर्क अनुमानों और उनकी व्यक्तिगत
धारणाओं पर आधारित हैं। सत्यता कुछ भी रही हो लेकिन एक बात अवश्य है कि इससे
राजाओं की उदारता और महानता तथा प्रजा के हितों के प्रति उनके दायित्वों का बोध
होता है। अतः शासकों द्वारा किये गये भूमिदान को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना
चाहिए।
प्रश्न 7. अशोककालीन अभिलेखों का उदाहरण देते हुए इतिहासकारों एवं अभिलेखशास्त्रियों
के कार्य करने के तरीकों का पता लगाइए।
अथवा
इतिहासकार एवं अभिलेखशास्त्री अशोक के अभिलेखों से किस प्रकार
ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त करते हैं ? सविस्तार समझाइए।
उत्तर:
इतिहासकार एवं अभिलेखशास्त्री अशोक के अभिलेखों से निम्न प्रकार के
साक्ष्य प्राप्त करते हैं
(1) अभिलेखों का परीक्षण करना- सर्वप्रथम इतिहासकार एवं अभिलेखशास्त्री ऐतिहासिक साक्ष्य
प्राप्त करने के लिए अभिलेख का परीक्षण करते हैं; जैसे-अशोक के एक अभिलेख में यह लिखा है कि 'राजन
देवानांपिय, पियदस्सी यह कहते हैं' इस अभिलेख
में अशोक का नाम नहीं लिखा हुआ है। इसमें अशोक द्वारा ग्रहण की गयी उपाधियों का
प्रयोग किया गया है जिनमें देवानांपिय व पियदस्सी आदि प्रमुख हैं, परन्तु अन्य अभिलेखों में अशोक का नाम मिलता है जिसमें उसकी उपाधियों का
भी विवरण मिलता है।
इन अभिलेखों का परीक्षण करने के पश्चात् अभिलेखशास्त्रियों
व इतिहासकारों ने पहले यह पता लगाया कि उनके विषय, शैली, भाषा, पुरालिपि विज्ञान
आदि सभी में समानता दिखाई देती है या नहीं उसके बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि इन
अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था। अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से कहा है
कि उससे पूर्व के शासकों ने जनता से सूचनाएँ प्राप्त करने की व्यवस्था नहीं की थी।
इतिहासकारों एवं अभिलेखशास्त्रियों को इस प्रकार के
अभिलेखों का अध्ययन करने के पश्चात् यह जानकारी हासिल करनी होती है कि अशोक ने इन
अभिलेखों में जो कुछ कहा है वह किस सीमा तक ठीक है। इस प्रकार इतिहासकारों व
अभिलेखशास्त्रियों को बार-बार अभिलेखों में लिखे हुए कथनों का परीक्षण करना पड़ता
है ताकि यह जानकारी प्राप्त हो सक कि जो कुछ उनमें लिला हुआ है वह सत्य है, सम्भव है अथवा फिर बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत
किया गया है।
(2) कोष्ठक में लिख हुए शब्दों के अर्थ की जानकारी प्राप्त करना- सम्राट अशोक के कुछ अभिलेखों में कुछ शब्द कोष्ठक
(ब्रेकेट) में लिखे हुए मिलाने हैं उदाहरण के रूप में, एक अभिलेख में अशोक कहता है कि "मैंने
निम्नलिखित (व्यवस्था) की हैंअभिलेखशास्त्री प्राय: वाक्यों के अर्थ स्पष्ट करने
के लिए इन कोष्ठकों (बेकेटों) का प्रयोग करते हैं। ऐसा करते समय अभिलेखशास्त्रियों
को बड़ी सावधानी से कार्य करना पड़ता है जिससे कि लेख का मूल अर्थ बदल न जाए।
(3) युद्ध के प्रति मनोवृत्ति में परिवर्तन को दर्शाना- अशोक के एक अभिलेख से कलिंग युद्ध में हुई विनाशलीला के
बारे में जानकारी प्राप्त होती है जिसमें अशोक की वेदना प्रकट होती है। साथ ही यह
अभिलेख कलिंग-युद्ध के पश्चात् उसकी परिवर्तित मनोवृत्ति को भी दर्शाता है, परन्तु यह अभिलेख उस क्षेत्र से नहीं मिला
है जहाँ यह युद्ध हुआ था अर्थात् कलिंग (आधुनिक ओडिशा) से उसकी वेदना के परिलक्षित
करने वाला कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। इतिहासकारों व अभिलेखशास्त्रियों ने
इसका यह अर्थ लगाया है कि सम्भवतः अशोक की नव विजय की वेदना उस क्षेत्र (कलिंग) के
लिए इतनी पीड़ादायक थी कि अशोक इस मुद्दे पर कुछ कह न सका।
(4) अन्य परीक्षण करना- इतिहासकारों
को और भी परीक्षण करने पड़ते हैं; जैसे-यदि
राजा के आदेश यातायात मार्गों के किनारे एवं नगरों के पास प्राकृतिक पत्थरों पर
उत्कीर्ण किए गए थे तो क्या वहाँ से गुज़रने वाले लोग उन्हें पढ़ने के लिए उस
स्थान पर रुकते थे ? उस काल के अधिकांश लोग शिक्षित नहीं थे।
क्या प्राकृत भाषा को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी स्थानों के लोग समझते थे? क्या राजा के आदेशों का पालन किया जाता था? इन
प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना भी जटिल है। अब इतिहासकार विभिन्न साक्ष्यों की
सहायता से इस जटिल समस्या का समाधान करते हैं।

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