Class-12 Bussiness
Studies
Chapter- 3 (निजी, सार्वजनिक एवं भमंडलीय उपक्रम)
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
भारतीय अर्थव्यवस्था को किन क्षेत्रों में वर्गीकत किया गया है?
उत्तर:
भारतीय अर्थव्यवस्था को निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र में
वर्गीकृत किया गया है।
प्रश्न 2.
सन् 1991 की औद्योगिक नीति पिछली औद्योगिक
नीतियों से किस अर्थ में भिन्न थी?
उत्तर:
सन् 1991 की औद्योगिक नीति में सरकार ने
सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश पर विचार किया, निजी क्षेत्र
को और अधिक स्वतन्त्रता दी गई तथा विदेशी निवेश को आमन्त्रित किया गया।
प्रश्न 3.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के प्रमुख स्वरूपों के नाम लिखिए।
उत्तर:
·
विभागीय उपक्रम
·
वैधानिक या लोक निगम
·
सरकारी कम्पनी।
प्रश्न 4.
विभागीय संगठनों की कोई दो विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर:
·
धन सरकारी खजाने से आता है तथा अर्जित राजस्व सरकारी
खजाने में जमा होता है।
·
विभागीय संगठन सम्बन्धित मन्त्रालय के प्रति जवाबदेय
होते हैं।
प्रश्न 5.
विभागीय उपक्रमों के दो प्रमुख दोष बतलाइए।
उत्तर:
·
अत्यधिक लालफीताशाही
·
अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप।
प्रश्न 6.
वैधानिक निगम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वैधानिक निगम वे सार्वजनिक उपक्रम हैं जिनकी स्थापना संसद के विशेष
अधिनियम द्वारा होती है और इस विशेष अधिनियम द्वारा ही ये शासित होते हैं।
प्रश्न 7.
वैधानिक निगमों के दो लाभ बतलाइए।
उत्तर:
·
कार्य-संचालन के लिए पूर्णरूप से स्वतन्त्र हैं।
·
वित्तीय मामलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता।
प्रश्न 8.
वैधानिक निगमों की दो कमियाँ बतलाइये।
उत्तर:
·
प्रत्येक कार्य नियम एवं कानून से, अतः लचीलेपन
का अभाव।
·
प्रत्येक महत्त्वपूर्ण निर्णयों एवं कार्यों में
सरकारी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप ।
प्रश्न 9.
सरकारी कम्पनियों की स्थापना क्यों की जाती है?
उत्तर:
·
सरकार द्वारा विशुद्ध रूप से व्यवसाय करने के लिए।
·
निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के
लिए।
प्रश्न 10.
सन् 1991 की औद्योगिक नीति के दो प्रमुख
तत्त्व लिखिए।
उत्तर:
·
क्षमता की सम्भावनाओं वाले सार्वजनिक क्षेत्र के
उपक्रमों (पी.एस.यू.) को पुनर्गठित एवं पुनर्जीवित करना।
·
ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जिनको पुनर्जीवित
नहीं किया जा सकता, को बन्द करना।
प्रश्न 11.
वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों के नाम
लिखिए।
उत्तर:
·
आणविक ऊर्जा,
·
रक्षा उपकरण,
·
रेलवे परिवहन।
प्रश्न 12.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के दो मुख्य प्राथमिक
उद्देश्य बतलाइए।
उत्तर:
·
सार्वजनिक ऋण की भारी राशि एवं ब्याज के भार को कम
करना।
·
सरकार की वाणिज्यिक जोखिम को निजी क्षेत्र को
हस्तान्तरित करना।
प्रश्न 13.
भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय नवीनीकरण कोष के उद्देश्य
बतलाइये।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र की बीमार इकाइयों में सेवानिवृत्त औद्योगिक मजदूरों
को सेवा में लगाये रखना या दुबारा सेवा में रख लेना तथा जो स्वेच्छा से
सेवानिवृत्त होते हैं उन्हें क्षतिपूर्ति का भुगतान करना।
प्रश्न 14.
समझौता विवरणिका क्या है?
उत्तर:
इस प्रणाली के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम में प्रबन्ध
को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाती है, परन्तु निर्धारित
परिणामों के लिए उसे उत्तरदायी भी ठहराया जाता है।
प्रश्न 15.
भूमण्डलीय उपक्रमों से आपका क्या तात्पर्य है?
अथवा
बहुराष्ट्रीय कम्पनी किसे कहते हैं?
उत्तर:
भूमण्डलीय उपक्रम अथवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वे विशाल औद्योगिक
संगठन हैं जिनकी औद्योगिक एवं विपणन क्रियाएँ उनकी शाखाओं के तन्त्र के माध्यम से
अनेक देशों में फैली हुई हैं।
प्रश्न 16.
संयुक्त उपक्रम का अर्थ बतलाइए।
उत्तर:
संयुक्त उपक्रम का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यावसायिक इकाइयों के
द्वारा एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए संसाधनों एवं विशेषज्ञता को एक
साथ मिला लेना।
प्रश्न 17.
संयुक्त उपक्रम के प्रमुख प्रकार बतलाइये।
उत्तर:
·
संविदात्मक संयुक्त उपक्रम
·
समता आधारित संयुक्त उपक्रम।
प्रश्न 18.
समता आधारित संयुक्त उपक्रम से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
यह वह उपक्रम है जिसमें एक अलग व्यावसायिक इकाई, जिसमें दो या अधिक पक्षों का संयुक्त स्वामित्व हो, का
निर्माण पक्षों के बीच समझौते से होता है।
प्रश्न 19.
पी.पी.पी. प्रतिरूप की कोई दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
·
लोक सुविधा के अभिकल्पन तथा निर्माण हेतु निजी पक्ष
से अनुबन्ध।
·
सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सुविधा का वित्त पोषण एवं
स्वामित्व।
प्रश्न 20.
पी.पी.पी. प्रतिरूप का कोई एक उदाहरण बतलाइये।
उत्तर:
कुंडली मानेसर एक्सप्रेस-वे लिमिटेड।
लघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की प्रमुख विशेषताएं बतलाइए।(कोई
चार)
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की प्रमुख विशेषताएँ-
1. सरकारी स्वामित्व-सार्वजनिक क्षेत्र
के उपक्रमों का सम्पूर्ण या कम-से-कम 51 प्रतिशत स्वामित्व
केन्द्र सरकार या राज्य सरकार या दोनों के हाथों में होता है।
2. सरकारी
नियन्त्रण-सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्ध एवं संचालन पर पूर्ण नियन्त्रण सरकार का ही
रहता है। इन उपक्रमों में प्रबन्ध संचालक, अध्यक्ष एवं संचालक मण्डल की
नियुक्ति सरकार ही करती है।
3. वित्त
व्यवस्था-सार्वजनिक उपक्रमों की पूँजी सरकार द्वारा प्रदान की जाती है। इनकी आय भी
सरकारी खजाने में जमा होती है। यद्यपि कुछ उपक्रम जैसे लोक निगम एवं सरकारी कम्पनी
अपनी वित्त व्यवस्था के लिए पूर्णतया स्वतन्त्र हैं।
4. जनता के
प्रति जवाबदेय-सार्वजनिक उपक्रमों में जनता या देश का धन विनियोजित
होता है। अतः ये उपक्रम अपने आर्थिक परिणामों एवं कार्य-संचालन के लिए जनता के
प्रति जवाबदेय होते हैं। जनता का कोई भी प्रतिनिधि इन उपक्रमों के कार्यों एवं
गतिविधियों के सम्बन्ध में संसद में प्रश्न पूछ सकता है।
प्रश्न 2.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा किन क्षेत्रों में निवेश को
प्राथमिकता प्रदान की गई?
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा जिन क्षेत्रों में निवेश किया
गया. वे थे-
(1) मूल क्षेत्र के लिए आधारभूत ढाँचा तैयार करना जिसके लिए भारी पूँजी निवेश की, जटिल एवं आधुनिक
तकनीक कि बड़े एवं प्रभावी संगठन ढाँचों जैसे कि लौह एवं इस्पात संयन्त्र, बिजली उत्पादन संयन्त्र, नागरिक उड्डयन, रेल, पेट्रोलियम, राज्य
व्यापार, कोयला आदि की आवश्यकता होती है।
(2) उस मूल
क्षेत्र में निवेश करना जहाँ निजी क्षेत्र के उद्यम अपेक्षित दिशा में कार्य
नहीं कर रहे हों, जैसे-रासायनिक खाद, दवा उद्योग, पेट्रो-रसायन, अखबारी कागज, मध्यम
एवं भारी इंजीनियरिंग।
(3) भावी
निवेश को दिशा देना जैसे परियोजना प्रबन्ध, होटल,
सलाहकार एजेन्सी, वस्त्र उद्योग तथा ऑटोमोबाइल
आदि।
प्रश्न 3.
सन् 1991 की नई औद्योगिक नीति के चार प्रमुख
तत्त्व बतलाइए।
उत्तर:
नई औद्योगिक नीति के प्रमुख तत्त्व-
·
क्षमता की सम्भावनाओं वाले सार्वजनिक क्षेत्र के
उपक्रमों को पुनर्गठित एवं पुनर्जीवित करना।
·
ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जिन्हें पुनर्जीवित
नहीं किया जा सकता, उन्हें बन्द करना।
·
यदि जरूरत हो तो गैर-महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र
के उपक्रमों में सरकार के समता अंशों को 26% या उससे कम लाना।
·
ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कर्मचारियों के
हितों को पूर्ण संरक्षण प्रदान करना।
प्रश्न 4.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के प्राथमिक उद्देश्य
बतलाइए।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के उद्देश्य-
·
सार्वजनिक ऋण की भारी राशि एवं ब्याज के भार को कम
करना।
·
सार्वजनिक क्षेत्र की वाणिज्यिक जोखिमों को निजी
क्षेत्र को हस्तान्तरित करना ताकि इनके कोषों का अधिक उपयोगी परियोजनाओं में निवेश
किया जा सके।
·
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को सरकारी नियन्त्रण
से मुक्त करना तथा निगमित शासन के अधीन लाना।
·
ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जिनका रणनीतिक
महत्त्व नहीं है, उनकी सार्वजनिक पूँजी की बड़ी राशि को बाहर लाना ताकि उन्हें सामाजिक
प्राथमिकता वाले क्षेत्रों जैसे-परिवार कल्याण, प्राथमिक
शिक्षा एवं मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं आदि के उपयोग में लाया जा सके।
·
टेली सम्प्रेषण क्षेत्र में उपभोक्ताओं को अधिक
सुविधा प्रदान करना ताकि उन्हें अधिक चयन की सुविधा, कम मूल्य एवं और अधिक श्रेष्ठ
गुणवत्ता वाले उत्पाद एवं सेवाओं का लाभ मिल सके।
प्रश्न 5.
समझौता विवरणिका (Memorandum of Understanding) क्या है?
उत्तर:
समझौता विवरणिका एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से सार्वजनिक
क्षेत्र की इकाइयों के निष्पादन में सुधार किया जा सकता है। इसके अनुसार प्रबन्धन
को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जा सकती है परन्तु साथ ही उसे निर्धारित परिणामों के
लिए उत्तरदायी भी ठहराया जाता है। वस्तुतः यह एक ऐसा ज्ञापन है जो किसी सार्वजनिक
क्षेत्र की विशेष इकाई एवं उसके प्रशासनिक मन्त्रालय के बीच आपसी सम्बन्धों एवं
स्वायत्तता को परिभाषित करता है।
प्रश्न 6.
भूमण्डलीय उपक्रमों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भूमण्डलीय उपक्रम-भूमण्डलीय उपक्रम या बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वे
विशाल निगम हैं, जिनका कारोबार अनेक देशों में फैला हुआ है।
इनका विशाल आकार, उत्पादों की बड़ी संख्या, उन्नत तकनीक, विपणन की रणनीतियाँ एवं पूरे में फैला
व्यवसाय इनकी प्रमुख विशेषता है। इस प्रकार भूमण्डलीय उपक्रम वे विशाल औद्योगिक
संगठन हैं जिनकी औद्योगिक एवं विपणन क्रियाएँ उनकी शाखाओं के तन्त्र के माध्यम से
अनेक देशों में फैली हुई हैं। इन शाखाओं को बहस्वामित्व विदेशी सम्बद्ध कहते हैं।
ये संगठन अनेक क्षेत्रों में व्यवसाय करते हैं। इनका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।
प्रश्न 7.
संयुक्त उपक्रम का अर्थ बतलाइए।
उत्तर:
संयुक्त उपक्रम का अर्थ-व्यापक अर्थ में संयुक्त उपक्रम का अर्थ है
दो या दो से अधिक व्यावसायिक इकाइयों के द्वारा एक निश्चत उद्देश्य को प्राप्त
करने के लिए संसाधनों एवं विशेषज्ञता को एक-साथ मिला लेना। इसमें व्यावसायिक
जोखिमों एवं प्रतिफल को भी परस्पर आपस में बाँट लिया जाता है। ऐसे उपक्रमों की
स्थापना सामान्यतः व्यवसाय का विस्तार करने, नये उत्पादों का
विकास करने या फिर नये बाजारों, विशेषकर अन्य देशों के
बाजारों में कार्य करना आदि के लिए की जाती है । वस्तुतः संयुक्त उपक्रम में दो या
दो से अधिक (जनक) कम्पनियाँ एक नई इकाई, जिस पर उन सभी का
नियन्त्रण हो, का निर्माण करने के लिए पूँजी, तकनीकी, मानव संसाधन, जोखिम
एवं प्रतिफल में हिस्सा बँटाने के लिए सहमत होते हैं।
प्रश्न 8.
भारत में संयुक्त उपक्रम कम्पनी की स्थापना किस प्रकार होती है?
उत्तर:
भारत में संयुक्त उपक्रम कम्पनी की स्थापना निम्न तरीकों से हो सकती
है-
(1) दो पक्ष (व्यक्ति या कम्पनियाँ) भारत में संयुक्त उपक्रम की
स्थापना कर सकते हैं। इसमें एक पक्ष अपना व्यवसाय नई कम्पनी को हस्तान्तरित कर
सकता है। इसके लिए नई कम्पनी अंश जारी करती है जिन्हें वह पक्ष स्वीकार कर लेता
है। दूसरा पक्ष इनको नकद खरीदता है।
(2) दोनों
पक्ष संयुक्त उपक्रम कम्पनी के अंशों को आपस में पूर्व निश्चित अनुपात में नकद
खरीद कर नया व्यवसाय शुरू कर सकते हैं।
(3) एक
विद्यमान भारतीय कम्पनी का प्रवर्तक अंशधारक एवं कोई दूसरा पक्ष (व्यक्ति या कम्पनी),
उस कम्पनी के व्यवसाय को मिलकर चलाने के लिए भागीदार बन सकते हैं।
दूसरा पक्ष प्रवासी अथवा अप्रवासी हो सकता है तथा वह अंशों को नकद भुगतान कर
प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न 9.
संविदात्मक संयुक्त उपक्रम के आवश्यक तत्व बतलाइये।
उत्तर:
संविदात्मक संयुक्त उपक्रम के आवश्यक या मुख्य तत्त्व-संविदात्मक
संयुक्त उपक्रम के प्रमुख या आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं-
·
संविदात्मक संयुक्त उपक्रम में दो या दो से अधिक
पक्षों का एक सामान्य दृष्टिकोण व्यवसाय उपक्रम को चलाना होता है।
·
इसमें प्रत्येक पक्ष कुछ निर्विष्टियाँ लाता है।
·
संयुक्त उपक्रम में दोनों पक्ष व्यवसाय उपक्रम पर कुछ
नियंत्रण रखते हैं।
·
संयुक्त उपक्रम दो उपक्रमों का लेन-देन से लेन-देन का
सम्बन्ध नहीं है वरन् यह तुलनात्मक रूप से दीर्घकालीन होता है।
प्रश्न 10.
समता आधारित संयुक्त उपक्रम की प्रमुख विशेषताएँ बतलाइये।
उत्तर:
समता आधारित संयुक्त उपक्रम की प्रमुख विशेषताएँ-
·
समता आधारित संयुक्त उपक्रम में या तो एक नई इकाई
बनाने का अथवा वर्तमान इकाई में किसी एक पक्ष द्वारा स्वामित्व ग्रहण करने का
समझौता होता है।
·
इसमें सम्बद्ध पक्षों का सहभाजित स्वामित्व होता है।
·
संयुक्त स्वामित्व वाले इस उपक्रम में सहभाजित
प्रबन्धन होता है।
·
इसमें पूँजी निवेश तथा अन्य वित्तीयन व्यवस्थाओं के
बारे में सहभाजित उत्तरदायित्व होता है।
·
इसमें आपसी समझौते के अनुसार सहभाजिता लाभ और हानि
होता है।
दीर्घउत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
सार्वजनिक उपक्रम की कमियों को दूर करने के उपाय बतलाइये।
उत्तर:
सार्वजनिक उपक्रम की कमियों को दूर करने के उपाय-
सार्वजनिक उपक्रमों की कमियों को दूर करने के लिए निम्न कुछ उपाय
किये जा सकते हैं-
·
सार्वजनिक उपक्रमों के उद्देश्यों एवं नीतियों की
स्पष्ट एवं विस्तृत व्याख्या की जानी चाहिए तथा विशेषज्ञों की . सहायता से इनके
उत्पादन, बिक्री लागत, बजट आदि के सम्बन्ध में उपयुक्त नियोजन
किया जाना चाहिए।
·
सार्वजनिक उपक्रमों में प्रभावी वित्तीय नियोजन किया
जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों की सेवाएँ लेनी चाहिए तथा प्रयास यह रहे कि
इन्हें इनकी आवश्यकतानुसार पूँजी उपलब्ध होती रहे।
·
सार्वजनिक उपक्रमों को अपनी उत्पादन क्षमता का भी
पूर्ण उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसे उपक्रम जो अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग
नहीं कर पा रहे हैं उनकी जवाबदेही निश्चित की जानी चाहिए।
·
सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों को ओवर-स्टाफिंग की
समस्या से भी मुक्त होना चाहिए। इसके लिए उच्च प्रबन्ध को प्रभावी उपाय करने
चाहिए।
·
कुशल एवं प्रभावी श्रम नीतियाँ अपनाकर औद्योगिक
सम्बन्धों को सुधारने का प्रयास किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक भर्ती व्यवस्था, तर्कसंगत
वेतन ढाँचा, श्रम कल्याण योजनाएँ, प्रबन्ध
एवं लाभ में श्रमिकों को भागीदारी प्रदान कर उपक्रमों में अच्छे श्रम सम्बन्ध
बनाये जा सकते हैं।
·
कर्मचारियों को प्रेरित करने एवं उनकी उत्पादकता को
बढ़ाने के लिए उत्प्रेरक वेतन प्रणाली अपनायी जानी चाहिए।
·
सार्वजनिक उपक्रमों में अनावश्यक एवं अवांछनीय
उपरिव्यय समाप्त किये जाने चाहिए। वित्तीय नियोजन, स्टॉक व बजटीय नियन्त्रण; उत्पादन नियोजन व नियन्त्रण अधिक सुनिश्चित एवं वैज्ञानिक होने चाहिए।
·
आन्तरिक स्वायत्तता और लोकदायित्व में उचित सन्तुलन
स्थापित करना होगा। .
·
सार्वजनिक उपक्रमों को भी व्यावसायिक सिद्धान्तों के
आधार पर चलाना चाहिए। इसके लिए इन्हें पेशेवर प्रबन्धकों के हाथों में सौंपा जाना
चाहिए। संचालक मण्डल में लोकसेवकों को नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
प्रश्न 2.
विभागीय उपक्रम से आप क्या समझते हैं? इसके
लाभ एवं सीमाएँ बतलाइए।
उत्तर:
विभागीय उपक्रम का अर्थ-सार्वजनिक क्षेत्र के इस सबसे पुराने एवं
परम्परागत स्वरूप में उपक्रम को किसी मन्त्रालय के एक विभाग के रूप में स्थापित
किया जाता है एवं यह मन्त्रालय का ही एक भाग या फिर उसका विस्तार माना जाता है। ये
उपक्रम सरकारी स्वामित्व में होते हैं। इनके लिए धन सरकारी खजाने से आता है,
अर्जित राजस्व सरकारी खजाने में ही जमा होता है। इसका नियोजन सरकार
के द्वारा बजट में किया जाता है।
सरकार इन्हीं विभागों के
माध्यम से कार्य करती है तथा ये सरकार की गतिविधियों के महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते
हैं। ये सरकार के अधिकारियों के माध्यम से कार्य करते हैं तथा इनके कर्मचारी
सरकारी कर्मचारी होते हैं जिन पर सरकारी सेवा नियम लागू होते हैं। ये अपने कार्यों
के लिए सम्बन्धित मन्त्रालय के प्रति जवाबदेय होते हैं। इनका प्रबन्धन सीधे
सम्बन्धित मन्त्रालय द्वारा किया जाता है। विभागीय उपक्रम के प्रमुख उदाहरण हैं
डाक एवं तार विभाग, रेलवे, रक्षा विभाग आदि।
लाभ-विभागीय उपक्रमों के कुछ
प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-
·
प्रभावी सुगम नियन्त्रण-विभागीय उपक्रमों पर संसद का
नियन्त्रण प्रभावी होता है क्योंकि ये उपक्रम संसद के प्रति पूर्णतया जवाबदेय होते
हैं।
·
सार्वजनिक जवाबदेयता-विभागीय उपक्रमों में उच्च स्तर
की सार्वजनिक जवाबदेयता सुनिश्चित होती है। अर्थात् ये उपक्रम जनता के प्रति
जवाबदेय होते हैं।
·
सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त-राष्ट्रीय सुरक्षा की
दृष्टि से विभागीय उपक्रम रूपी संगठन सबसे अधिक उपयुक्त उपक्रम माने जाते हैं।
क्योंकि ये विभागीय उपक्रम सीधे ही मन्त्रालय के नियन्त्रण एवं निरीक्षण में कार्य
करते हैं।
·
सरकारी आय का स्रोत-विभागीय उपक्रम सरकार की आय का
मुख्य स्रोत होते हैं।
·
सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य-इन उपक्रमों के माध्यम से
सरकार अपने आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा करने में सफल रहती है।
·
प्रारम्भिक अवस्था वाले उपक्रमों के लिए
उपयुक्त-विभागीय उपक्रम उन उपक्रमों के लिए उपयुक्त हैं जो विकास की प्रारम्भिक
अवस्था में या हानिप्रद अवस्था में हैं।
·
पूर्ण गोपनीयता-विभागीय उपक्रमों पर सरकार का पूर्ण
स्वामित्व एवं नियन्त्रण होने के कारण पूर्ण गोपनीयता रखी जा सकती है। इसलिए यह
स्वरूप उन उपक्रमों के लिए उपयुक्त माना जा सकता है जिनमें गोपनीयता रखी जानी
चाहिए।
·
सरल स्थापना-विभागीय उपक्रमों की स्थापना आसान रहती
है क्योंकि इसके लिए विशेष अधिनियम एवं पंजीकरण की आवश्यकता नहीं रहती।
सीमाएँ-विभागीय उपक्रमों की
कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
·
लचीलेपन का अभाव-विभागीय उपक्रम रूपी स्वरूप में
लचीलेपन की कमी होती है जबकि व्यवसाय को आसानी से चलाने के लिए लचीलापन जरूरी होता
है।
·
शीघ्र एवं स्वतन्त्र निर्णय लेने का अभाव-इस प्रकार
के संगठन में इनके प्रबन्ध एवं संचालनकर्ता बिना सम्बन्धित मन्त्रालय के अनुमोदन
के किसी भी मामले में स्वतन्त्र एवं शीघ्र निर्णय नहीं ले सकते हैं। इस कारण ये
संगठन ऐसे निर्णय नहीं ले पाते जिनमें शीघ्र निर्णय लेना हो।
·
व्यावसायिक अवसरों का लाभ नहीं-विभागीय संगठन
व्यावसायिक अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते हैं। यह इनमें अत्यधिक सतर्कता एवं
रूढ़िवादिता के कारण होता है।
·
लालफीताशाही-विभागीय संगठनों में सरकार के अन्य
विभागों की तरह ही अत्यधिक लालफीताशाही पायी जाती है। क्योंकि इनमें उचित
प्रक्रिया पूरी होने पर ही कोई कार्य शुरू हो पाता है।
·
राजनीतिक हस्तक्षेप-विभागीय उपक्रमों में सम्बन्धित
मन्त्रालयों के माध्यम से राजनीतिक हस्तक्षेप अत्यधिक रहता है। इनमें सम्बन्धित
मन्त्री की ही मर्जी से कार्य होता है।
·
उपभोक्ताओं के प्रति संवेदनशील नहीं-ये संगठन सरकारी
मन्त्रालयों के नियन्त्रण में रहने के कारण आम उपभोक्ताओं के प्रति संवेदनशील नहीं
रह पाते हैं।
·
कठोर वित्तीय नियन्त्रण-विभागीय संगठन स्वरूप पर
सरकार का कठोर वित्तीय नियन्त्रण रहता है। कोई भी व्यय बिना पूर्व स्वीकृति के
नहीं किया जा सकता।
·
योग्य एवं कुशल कर्मचारियों का अभाव-इन उपक्रमों में
योग्य, कुशल, निष्ठावान कर्मचारियों का अभाव रहता है।
सरकारी कर्मचारी व अधिकारी प्रशासन में निपुण होते हैं व्यवसाय में नहीं।
·
व्यावसायिक सिद्धान्तों की उपेक्षा-विभागीय संगठनों
में व्यावसायिक सिद्धान्तों की उपेक्षा की जाती है। अतः ये घाटे में चलते हैं और
सरकार इस घाटे को पूरा करने के लिए कर लगाती है।
प्रश्न 3.
वैधानिक निगम क्या हैं? इनकी विशेषताओं का
उल्लेख कीजिए।
अथवा
लोक निगमों से आपका क्या तात्पर्य है? लोक
निगमों के लक्षण बतलाइए।
उत्तर:
वैधानिक (लोक) निगमों का अर्थ-वैधानिक या लोक निगम वे सार्वजनिक
उपक्रम हैं जिनकी स्थापना संसद के विशेष अधिनियम के द्वारा ही की जाती है। यह विशेष
अधिनियम ही ऐसे निगमों के अधिकार एवं कार्य, इनके
कर्मचारियों से सम्बन्धित नियम एवं कानून तथा सरकार के विभिन्न विभागों से इसके
सम्बन्धों को परिभाषित करता है अर्थात् ये निगम इन विशेष अधिनियमों से ही शासित
होते हैं।
लोक निगम वित्त मामलों में
स्वतन्त्र होते हैं, निर्धारित क्षेत्र पर तथा विशेष प्रकार की वाणिज्यिक क्रियाओं पर इनका
स्पष्ट नियन्त्रण रहता है। इन निगमों के पास जहाँ एक ओर सरकारी अधिकार होते हैं
वहीं दूसरी तरफ निजी उपक्रमों के समान ही परिचालन में पर्याप्त लचीलापन होता है।
विशेषताएँ या लक्षण-वैधानिक
निगमों की कुछ प्रमुख विशेषताएँ या लक्षण निम्नलिखित हैं-
·
संसद द्वारा पारित विशेष अधिनियम द्वारा
स्थापना-वैधानिक निगमों की स्थापना संसद द्वारा पारित विशेष अधिनियम द्वारा ही
होती है। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ही इनका संचालन होता है। विशेष
अधिनियम ही इन उपक्रमों के अधिकार, उद्देश्य एवं विशेषाधिकारों को
परिभाषित करता है।
·
सरकार का स्वामित्व-वैधानिक निगमों पर पूर्णतया या
अधिकांशतया सरकार का स्वामित्व होता है। वित्त के सम्बन्ध में, अन्तिम
उत्तरदायित्व सरकार का होता है तथा वही लाभों का विनियोजन भी करती है। इनकी हानि
को भी सामान्यतः सरकार ही वहन करती है।
·
एक निगमित संगठन-वैधानिक संगठन एक निगमित संगठन के
रूप में होते हैं। अतः ये अपने नाम से अनुबन्ध कर सकते हैं, सम्पत्ति
खरीद या बेच सकते हैं, इन पर या इनके द्वारा मुकदमा किया जा
सकता है।
·
सरकारी लेखांकन एवं अंकेक्षण से मुक्त-सरकारी विभागों
के लिए लेखांकन एवं अंकेक्षण की जो प्रक्रिया है वह इन पर लागू नहीं होती है।
केन्द्र सरकार के बजट से इनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।
·
वित्त व्यवस्था-सामान्यतः वैधानिक निगम अपनी वित्त
व्यवस्था स्वयं ही करते हैं।
·
सरकारी कर्मचारी नहीं-वैधानिक निगमों के कर्मचारी
निगम के अपने कर्मचारी माने जाते हैं. सरकार के नहीं। अतः ये सरकारी सेवा-शर्तों, नियमों व
कानूनों से शासित नहीं होते हैं। कर्मचारियों की सेवा-शर्ते सम्बन्धित अधिनियम में
ही लिखी होती हैं।
·
मुख्य उद्देश्य-वैधानिक निगमों की स्थापना का मुख्य
उद्देश्य जनता की सेवा करना है।
·
प्रबन्ध एवं संचालन-वैधानिक निगमों का प्रबन्ध एवं
संचालन सरकार द्वारा नियुक्त संचालक मण्डल करता है। संचालक मण्डल ही इन निगमों के
कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है।
प्रश्न 4.
लोक निगमों के गुण एवं दोष बतलाइए।
उत्तर:
लोक निगमों के गुण-लोक निगमों के कुछ प्रमुख गुण निम्नलिखित बतलाये
जा सकते हैं-
1. स्वतन्त्र-लोक निगम अपने कार्य-संचालन में पूर्णतया स्वतन्त्र
होते हैं। इनके कार्य-संचालन में पर्याप्त लोच भी पायी जाती है। सरकार के
कायदे-कानून इन पर लागू नहीं होते हैं।
2. वित्तीय
मामलों में सरकार का हस्तक्षेप नहीं-लोक निगमों के लिए धन की व्यवस्था केन्द्रीय
बजट में नहीं होती इसीलिए इनकी आय एवं प्राप्तियों पर सरकार का कोई अधिकार भी नहीं
होता है। इस प्रकार इन निगमों के वित्तीय मामलों में सरकार का हस्तक्षेप नहीं रहता
है।
3. पर्याप्त
स्वायत्तता-बँकि ये स्वायत्त संगठन होते हैं इसलिए ये अधिनियम द्वारा प्रदत्त
अधिकारों की परिधि में रहकर ही अपनी नीतियों एवं प्रक्रियाओं का निर्धारण करते हैं,
तथापि कुछ मुख्य विषयों पर सम्बन्धित मन्त्रालय की पूर्व अनुमति
लेना आवश्यक होता है।
4. आर्थिक
विकास के महत्त्वपूर्ण उपकरण-लोक निगम देश के आर्थिक विकास के महत्त्वपूर्ण उपकरण
माने जाते हैं। इनके पास एक ओर तो सरकार के अधिकार होते हैं तो दूसरी तरफ निजी
उपक्रम की पहल क्षमता भी होती है।
5. कुशल
प्रबन्धकों तथा विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ-लोक निगम वित्तीय मामलों में
स्वतन्त्र रहने के कारण कुशल प्रबन्धकों तथा विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ उठा सकते
हैं।
6. स्थायित्व
एवं निरन्तरता-लोक निगमों का पृथक् वैधानिक अस्तित्व होने के कारण उपक्रम में
स्थायित्व एवं निरन्तरता बनी रहती है।
7. सार्वजनिक
सम्पत्ति का दुरुपयोग नहीं-लोक निगमों पर भी संसद का पर्याप्त नियन्त्रण रहता है
जिससे सार्वजनिक सम्पत्ति के दुरुपयोग को रोका जा सकता है।
दोष-लोक निगम स्वरूप के कुछ
प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-
·
सरकारी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप-लोक निगमों से
सम्बन्धित प्रत्येक निर्णय में सरकारी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप विद्यमान होता है।
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भ्रष्टाचार-लोक निगमों में जहाँ कहीं भी जनता से
लेन-देन की आवश्यकता होती है वहीं अनियन्त्रित भ्रष्टाचार व्याप्त है।
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वित्त व्यवस्था के दुरुपयोग का भय-लोक निगमों को
वित्तीय व्यवस्था में पर्याप्त स्वतन्त्रता मिली होती है। फलतः इस वित्तीय
स्वायत्तता के दुरुपयोग का भय सदैव बना रहता है।
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स्थापना कठिन-लोक निगमों की स्थापना कठिन होती है
क्योंकि इनकी स्थापना के लिए संसद में इनके सम्बन्ध में विशेष अधिनियम पारित करने
की आवश्यकता होती है। यह कार्य इतना आसान नहीं है।
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लचीलेपन का अभाव-लोक निगमों में वस्तुतः कार्य-संचालन
में पर्याप्त लचीलापन नहीं होता है। क्योंकि इनमें भी प्रत्येक कार्य नियम एवं
कानून के अनुसार ही होता है।
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स्वतन्त्रता सीमित-लोक निगमों के संचालक मण्डल में
सरकार सलाहकार नियुक्त करती रही है। इस कारण निगम की अनुबन्धों एवं अन्य निर्णयों
में स्वतन्त्रता सीमित हो जाती है। जब भी कोई मतभेद उत्पन्न हो जाता है तो सरकार
के पास उसे अन्तिम निर्णय के लिए भेज दिया जाता है। इससे इनके कार्य में और विलम्ब
हो जाता है।

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